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देवभोग के भगवान जगन्नाथ के अनसुने किस्से: 123 सालों से ‘देवभोग’ से वसूल रहे लगान, 84 गांवों में घूम रहे चाकर और पुजारी, जानिए लगान की कहानी ?

गिरीश जगत, गरियाबंद: आज देशभर में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा निकाली जाएगी। छत्तीसगढ़ के जगन्नाथ मंदिरों में भी इसकी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं। महास्नान के दौरान बीमार पड़े भगवान जगन्नाथ आज सुबह स्वस्थ हो गए, इसलिए रथ यात्रा से पहले होने वाले उत्सव भी आज मनाए जा रहे हैं। इस बीच हम आपको गरियाबंद के भगवान जगन्नाथ जी के बारे में बताएंगे, जहां वे 123 सालों से किराया वसूल रहे हैं।

Gariaband Lord Jagannath Lagaan Story Jagannath Temple Puri: देवभोग के 84 गांवों के लोग भगवान जगन्नाथ जी को किराया देते आ रहे हैं। किराए के तौर पर चावल और मूंग लिया जाता है। यहां से वसूला गया किराया पुरी स्थित विश्व प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ मंदिर में जाता है, फिर वही सुगंधित चावल और मूंग पहले प्रसाद के तौर पर चढ़ाए जाते हैं।

किराया वसूलने पुरी से आए सेवक और पुजारी

Gariaband Lord Jagannath Lagaan Story Jagannath Temple Puri: देवभोग स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर में भगवान की सेवा के लिए पुजारियों के अलावा सेवक भी नियुक्त किए गए हैं। वे गांवों में घूम-घूम कर थैलों में अनाज ले जा रहे हैं। देवभोग के भगवान जगन्नाथ मंदिर के सेवक और पुजारी हैं।

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Gariaband Lord Jagannath Lagaan Story Jagannath Temple Puri: भगवान जगन्नाथ के आदेश पर फसल काटने के बाद वे उसी तरह गांव में जाते हैं और किराए के रूप में अनाज वसूलते हैं। हर साल वसूले गए किराए से मंदिर का संचालन और चढ़ावा चढ़ाया जाता है। 4 पीढ़ियों से मंदिर की सेवा कर रहा यादव परिवार हर साल रथ यात्रा से पहले वसूले गए किराए का एक हिस्सा पुरी के जगन्नाथ मंदिर में चढ़ावे के लिए भेजा जाता है।

Gariaband Lord Jagannath Lagaan Story Jagannath Temple Puri: इसी वजह से इस जगह का नाम देवभोग पड़ा। मंदिर में सेवादार के तौर पर झारबहाल के यादव परिवार को सालों पहले जिम्मेदारी दी गई थी, जो पिछली 4 पीढ़ियों से मंदिर में सेवा कर रहे हैं। भगवान जगन्नाथ किराया क्यों वसूलते हैं? मान्यता है कि 18वीं सदी में जब टेमरा निवासी रामचंद्र बेहरा पुरी तीर्थ यात्रा से लौटे तो वे अपने साथ भगवान की मूर्ति भी लाए थे।

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Gariaband Lord Jagannath Lagaan Story Jagannath Temple Puri: उन्होंने इसे झारबहाल के पेड़ के नीचे रखा और पूजा-अर्चना शुरू कर दी। तत्कालीन जमींदारों ने भरी सभा में मूर्ति की शक्ति का परीक्षण किया। परिणाम चौंकाने वाले थे, इसलिए तुरंत जमींदारों ने मंदिर निर्माण के लिए जगह का चयन कर लिया। यह भी घोषणा की गई कि इसे जनभागीदारी से बनाया जाएगा।

ग्रामीणों ने अपने हिस्से का अनाज देने की शपथ ली

Gariaband Lord Jagannath Lagaan Story Jagannath Temple Puri: मंदिर निर्माण के बाद इसका संचालन भी श्रद्धालुओं की आस्था से जुड़ गया। ग्रामीणों द्वारा इसके संचालन के लिए दिए जाने वाले अनाज से पुजारी का वेतन, सेवादारों का वेतन और मंदिर के रख-रखाव का खर्चा निकलता है, जिसे किराए के रूप में दिया जाता है।

Gariaband Lord Jagannath Lagaan Story Jagannath Temple Puri: ग्रामीणों ने अपने हिस्से का अनाज देने की शपथ ली। शपथ को जीवंत रखने के लिए मूर्ति के पुराने स्थान पर एक शपथ पत्थर रखा गया। यह पत्थर पीढ़ी दर पीढ़ी मंदिर के संचालन के लिए भगवान को दिए जाने वाले किराए की याद दिलाता है।

भगवान क्यों वसूलते हैं लगान

Gariaband Lord Jagannath Lagaan Story Jagannath Temple Puri: परीक्षण के बाद यह भी तय हुआ कि अकेले जमीदार मंदिर नहीं बनाएंगे, इसका निर्माण जनभागीदारी से होगा। 1854 में मंदिर बनाना शुरू हुआ। 84 गांव के सभी ग्रामीणों ने अपनी क्षमता के अनुरूप मदद की। निर्माण सामग्री से लेकर आर्थिक सहयोग किया। निर्माण 1901 में पूरी हुई।

Gariaband Lord Jagannath Lagaan Story Jagannath Temple Puri: मंदिर बनने के बाद अब इसके संचालन को भी भक्तों की आस्था के साथ जोड़ा गया। संचालन के लिए जो अनाज ग्रामीण देते हैं, उसी से पुजारी की सैलरी, सेवादारों की मेहनताना और मंदिर मेंटनेंस खर्च चलाया जाता है, जिसे लगान का रूप दिया गया।

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बेल, चिवड़ा, बबूल और स्थानीय सामग्रियों से बना है मंदिर

अनोखी वास्तुकला और विधि से बने इस मंदिर को सीमेंट की जगह बेल, चिवड़ा, बबूल और स्थानीय सामग्रियों का उपयोग करके बनाया गया है। यही वजह है कि इसे बनने में 47 साल लगे। ब्रिटिश काल में यह क्षेत्र जमींदारों के कब्जे में था। इस मंदिर में स्थापित मूर्ति दधि ब्राह्मण रूप की है, जो भगवान जगन्नाथ के 52 स्वरूपों में से एक है।

मंदिरों में होती है गरुण-अरुण स्तंभ की पूजा

पुरी के अलावा जगन्नाथ जी के अन्य मंदिरों में भी गरुण-अरुण स्तंभ की पूजा होती है, लेकिन यहां स्थापित गरुण-अरुण की मूर्तियों ने मंदिर को अद्वितीय की श्रेणी में ला खड़ा किया है। आस्था का केंद्र बन चुके इस मंदिर में हर माह भगवान के 12 उत्सव मनाए जाते हैं। एकादशी और रथ यात्रा पर भक्तों की भारी भीड़ होती है।

कैसे पड़ा देवभोग नाम?

मंदिर का निर्माण पूरा होने के बाद 84 गांवों के ग्रामीण झाराबहाल में जगन्नाथ जी के पुराने स्थल पर एकत्र हुए और मंदिर चलाने के इनाम के तौर पर पहली फसल का एक हिस्सा जगन्नाथ जी को चढ़ाने की शपथ ली। विधिवत एक शिला स्थापित की गई और उसका नाम शपथ शिला रखा गया। हालांकि अब उस पर राधा कृष्ण की मूर्ति स्थापित कर निर्माण कार्य पूरा कर लिया गया है।

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मंदिर प्रबंधन की यह व्यवस्था न केवल आस्था का प्रतीक है बल्कि अन्य मंदिरों की तुलना में प्रबंधन की अनूठी पद्धति भी है। कर का एक हिस्सा जगन्नाथ पुरी भोग के लिए भेजा जाता है। पुरी पीठ ने क्षेत्र के सुगंधित चावल और जगन्नाथ के पसंदीदा प्रसाद काले मूंग को स्वीकार किया और इसे कुसुम भोग नाम दिया। इस शहर का नाम देवभोग पड़ा। तब से यह शहर देवभोग के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

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