लोकसभा चुनाव 2024 विशेष आलेख: मोदी के मुकाबले कहां खड़ा है इंडिया गठबंधन ?

जो सूत्रधार थे उसी ने पाला बदल लिया…मंझधार में हिचकोले खाता छोड़ इंडिया गठबंधन का मांझी एनडीए की नांव पर चढ़ गया…मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव में मिली शिकस्त के बाद विपक्षी क्षत्रपों ने कांग्रेस को आंखे दिखाना शुरू कर दिया…नीतीश कुमार ‘मिट्टी में मिल जाने’ की सौगंध भूल गए…जिस बीजेपी को लाल किले से उखाड़ने चले थे उसी बीजेपी की गोद में बैठ गए…ममता से अखिलेश तक सबने राहुल गांधी को आंख दिखाना शुरू कर दिया…इसी बीच मोदी सरकार ने चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने का ऐलान किया और जयंत चौधरी चवन्नी की तरह पलट गए. यूपी में समाजवादी पार्टी की तरफ से मिले 7 सीटों के ऑफर को ठुकराते हुए जयंत इंडिया गठबंधन छोड़ एनडीए के कूचे में जा बैठे. ऐसा लगा मानो इंडिया गठबंधन की ट्रेन प्लेटफॉर्म से चलते ही पटरी से उतर गई. विपक्षी खेमे की तरफ टकटकी लगाए बैठी जनता की उम्मीदें धूल धुसरित हो गई..व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा, निजी स्वार्थ और सियासी दगाबाजी ने इंडिया गठबंधन के बीजे को अंकुरित ही नहीं होने दिया…लेकिन दर्द जब हद से गुजरा दवा हो गया…अपनों की घात और साजिशों को सहते सहते इंडिया गठबंधन संभल गया…गिरते-पड़ते-लड़खड़ाते हुए इंडिया गठबंधन तन कर खड़ा हो गया…
राहुल की न्याय यात्रा और अखिलेश यादव
देर आए, दुरुस्त आए. सालों बाद यूपी में फिर ‘दो लड़के’ साथ आ गए. मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच की करवाहट खत्म हो गई…लाल किले का रास्ता कहलाने वाले देश के सबसे बड़े सूबे में दोनों पार्टियों के बीच सीटों का बंटवारा हो गया. राहुल की न्याय यात्रा में शामिल होकर अखिलेश यादव ने कार्यकर्ताओं को भी संदेश दे ही दिया कि बीजेपी का मुकाबला करने के लिए साइकिल को हाथ का साथ लेना ही होगा. न सिर्फ साथ चलना होगा, बल्कि ज़माने के सामने साथ दिखना भी होगा.
हालांकि 80 सीटों वाले यूपी में पिछले दो लोकसभा चुनावों के नतीजे इंडिया गठबंधन को उम्मीदें नहीं देते. पिछले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को मिले कुल वोट भी बीजेपी के मुकाबले बहुत ही कम हैं. लेकिन कहते हैं सियासत में एक और एक अक्सर ग्यारह होते हैं. और मौजूदा दौर में इसका महत्व और भीं बढ़ गया है. क्योंकि केंद्र से लेकर अधिकांश राज्यों की सत्ता हथियाकर बीजेपी इतनी बलशाली हो चुकी है, कि अब वो लोग भी बीजेपी की मुखालफत से बचते हैं जो बीजेपी को पसंद नहीं करते. जाहिर है राहुल और अखिलेश जब साथ चलेंगे तो यूपी के वैसे मतदाताओं का मनोबल तो बढ़ेगा ही.
“कमियां हर जगह होती है. कोई भी व्यक्ति या नेता पूर्ण नहीं हो सकता. पार्टी और गठबंधन भी लोगों के समूह और सामूहिक दबाव से बनते हैं.”
बिहार में इंडिया गठबंधन
शीट शेयरिंग के मामले में यूपी के मुकाबले बिहार में इंडिया गठबंधन की ट्रेन अभी सुस्त दिख रही है. लेकिन माहौल की बात करें तो बिहार विपक्षी खेमे के लिए सबसे मुफीद दिख रहा है. नीतीश कुमार के पाला बदल से सत्ता से पैदल हुए तेजस्वी ने दो सप्ताह के भीतर ही बिहार को मथ दिया. तेजस्वी की रैलियों में उमड़ी भीड़ यही बता रही थी मानो बिहार की जनता ने भी मान लिया हो कि सरकारी नौकरियां दने का जो रिकॉर्ड बिहार ने बनाया है. वो सिर्फ और सिर्फ तेजस्वी के संकल्प के कारण संभव हो सका है.
पटना की रैली में उमड़ी भीड़ और लालू यादव का 1990 वाला अंदाज ये बताने को काफी था कि बिहार में एक बार फिर पिछड़ों-दलितों का बड़ा तबका तेजस्वी के समर्थन में गोलबंद हो रहा है. अल्पसंख्यकों के बीच नीतीश की साख खत्म होने का फायदा भी इंडिया गठबंधन को मिलना तय है. हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव नतीजों की रौशनी में देखें तो बिहार में इंडिया गठबंधन की हालत यूपी से भी बहुत खराब नज़र आएगी. लेकिन तेजस्वी और राहुल की यात्रा में उमड़ी भीड़ ये इशारा दे रही है कि इस बार के चुनाव में पासा पलट सकता है. 40 में 39 जीतने वाले एनडीए गठबंधन को आधी सीटें जीतने में भी नाको चने चबाने पड़ सकते हैं.
महाराष्ट्र में भी इंडिया गठबंधन
सीटों के लिहाज से देश के दूसरे सबसे बड़े राज्य महाराष्ट्र में भी इंडिया गठबंधन लगभग आकार ले चुका है. ये और बात है कि कांग्रेस को छोड़ इंडिया गठबंधन में शामिल तमाम क्षेत्रीय दल अपनी पार्टी और सिंबल गंवा चुके हैं. बीजेपी की कथित तोड़फोड़ की राजनीति ने पार्टी के संस्थापकों को ही नकली बना दिया. जिन नेताओं ने मूल पार्टी से बगावत की, चुनाव आयोग ने उनके गुट को ही असली पार्टी के तौर पर मान्यता दे दी. ऊपरी तौर पर ये सारी बातें इंडिया गठबंधन के खिलाफ दिख रही हैं. लेकिन ज़मीन पर हालात जुदा हैं. उद्धव की सभाओं में भीड़ बढ़ती जा रही है. शरद पवार के प्रति सहानुभूति पहले से ज्यादा हो चली है. लोग खुलेआम अजित पवार और एकनाथ शिंदे को गद्दार कह रहे हैं.
जाहिर अगर लोगों की ये भावना ईवीएम में दर्ज हुई तो बीजेपी के लिए महाराष्ट्र में भी लेने के देने पड़ जाएंगे. 2019 के लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र की 48 में से 41 सीटें जीतने वाले एनडीए की राह इस बार बहुमत मुश्किल हो सकती है. हालांकि अजित पवार और फडणवीस की सरकार ने विधानसभा से मराठा आरक्षण विधेयक पारित तो करा दिया. लेकिन मनोज जरांगे पाटील इसे आई वॉश कह रहे हैं. अपने समर्थकों से ये भी आह्वान कर रहे हैं कि वो आरक्षण लागू होने से पहले किसी नेता को अपने दरवाजे पर आने न दें. यानि मराठाओं को तो मना नहीं सके ऊपर से ओबीसी समाज बागी बन बैठा.
फडणवीस का दावा है कि सीएम शिंदे ने छगन भुजबल का इस्तीफा कबूल नहीं किया है. लेकिन ये बात तो सरेआम हो गई कि ओबीसी और मराठाओं के बीच संतुलन बनाये रखने की जो कोशिश बीजेपी कर रही है. वो ज़मीन पर नदारद है. मराठाओं को अपने पाले में लाने की कोशिश में ओबीसी समाज बीजेपी से भड़क उठा है. बीजेपी बैकफुट है. डैमेज कंट्रोल शुरू हो चुका है. लेकिन केंद्र राज्य दोनों में अपनी सत्ता होने के कारण बीजेपी के पास लोगों को बरगलाने के बहाने भी नहीं बचे हैं.
दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन
देश की राजधानी दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन मुकम्मल हो चुका है. हालांकि दिल्ली में लोकसभा की सिर्फ सात सीटें ही हैं. लेकिन चुकी पिछले दोनों लोकसभा चुनावों में सभी सात सीटों पर बीजेपी का कब्जा रहा है. लिहाजा इस गठबंधन के बाद यहां भी समीकरण तेजी से बदल रहे हैं.
बीजेपी की पहली लिस्ट में दिल्ली से जिन पांच लोगों को उम्मीदवार बनाया गया है. उसमें सिर्फ मनोज तिवारी ही भाग्यशाली रहे, बाकी चार का पत्ता कट गया. बेटिकट हुए डॉ. हर्षवर्धन ने तो राजनीति से ही संन्यास ले लिया. मतलब ये कि इस बार मुकाबला कड़ा होगा. दिल्ली में अल्पसंख्यक वोटों का बंटवारा घटेगा.
इंडिया गठबंधन के पक्ष में पिछड़े दलितों की गोलबंदी भी हो सकती है. कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच हरियाणा और गुजरात में भी सीट बंटवारा हो चुका है. रही बात पंजाब की तो दोनों ने फ्रेंडली फाइट की रणनीति चुनी है. मकसद ये कि बीजेपी के पक्ष में गोलबंदी न हो सके. हालांकि अगर अकाली दल और बीजेपी के बीच गठबंधन की घोषणा हुई तो कुछ सीटों पर पंजाब में भी पुनर्विचार हो जाए, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए.
ममता बनर्जी और कांग्रेस का रिश्ता
इंडिया गठबंधन की सबसे कमजोर कड़ी फिलहाल पश्चिम बंगाल है. जहां ममता बनर्जी के रुख ने कांग्रेस को सावधान कर दिया है. कांग्रेस फूंक फूंक कर कदम बढ़ा रही है ताकि जनता में ये संदेश न जाए कि वो ममता बनर्जी को महत्व नहीं दे रही. ममता बनर्जी की परेशानी तभी सरेआम हो गई थी जब बंगाल में राहुल गांधी की न्याय यात्रा दाखिल हुई थी, ममता बनर्जी राहुल गांधी पर निजी हमले से भी नहीं चूकीं थी. ममता के इन्हीं बयानों ने एनडीए गठबंधन को इंडिया गठबंधन पर हमले का हथियार थमा दिया और वो इंडिया गठबंधन को कागजी गठबंधन बताने लगा.
ममता बनर्जी की कोशिश यही है कि कांग्रेस बंगाल में अपना उम्मीदवार ही खड़ा न करे, अगर उनका मन हो तो वो एक दो सीटों की मेहरबानी कर देंगी. लेकिन अधीर रंजन ममता के इस तेवर को सामंती बता रहे हैं. ये भी कहने से नहीं चूक रहे कि अगर नीतीश एनडीए में घर वापसी कर सकते हैं तो ममता बनर्जी ऐसा नहीं करेंगी इसकी गारंटी क्या है. मतलब ये कि अगर ममता बनर्जी ने कांग्रेस को ठेंगा दिखाया और उसे अकेले लड़ने पर मजबूर किया तो संभव है कि 42 सीटों वाले बंगाल में इस बार टीएमसी को वो 23 सीटें भी न मिल पाए जो उसने 2019 में जीती थी.
फिलहाल पश्चिम बंगाल में जिस तरह का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो चुका है उसमें अगर बीजेपी इस बार 18 से ज्यादा सीटें भी जीत जाए तो किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए. पश्चिम बंगाल में तकरीबन 30 फीसदी मुस्लिम है और फिलहाल ये समुदाय टीएमसी के साथ खड़ा है. लेकिन राहुल की न्याय यात्रा पर ममता की टिप्पणियों से राहुल के लिए सहानुभूति बढ़ी है. और अगर ममता ने अपने कदम पीछे नहीं खीचे तो उन्हें ऐतिहासिक नुकसान हो सकता है. जाहिर है. लेकिन देर से ही सही अब ममता बनर्जी को ये बात समझ में आने लगी है. और वो कांग्रेस और राहुल पर टिप्पणी से परहेज कर रही हैं. यानि इंडिया गठबंधन बंगाल में भी बनेगा ही. ममता बनर्जी को न चाहते हुए भी कांग्रेस को तवज्जो देनी होगी.
राजस्थान, उत्तराखंड और हिमाचल में क्या?
राजस्थान, उत्तराखंड और हिमाचल जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों में बीजेपी ने 2019 के चुनाव में सारी की सारी सीटें अपने नाम कर ली थी. मध्यप्रदेश में भी छिंदवाड़ा छोड़ सभी सीटें बीजेपी के खाते में ही आई थी. मोदी का गढ़ गुजरात भी इसका अपवाद नहीं रहा था. झारखंड और छत्तीसगढ़ में भी बीजेपी का प्रदर्शन शानदार था. यानि इन राज्यों में बीजेपी सफलता के जिस शिखर को छू चुकी है उससे ऊपर कुछ होता ही नहीं है. जाहिर है अगर राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का कुछ भी सकारात्मक असर चुनाव में दिखा तो बीजेपी का नुकसान तय है.
दक्षिण भारत में इंडिया गठबंधन
इंडिया गठबंधन की सबसे अच्छी स्थिति दक्षिण भारत में रहेगी. जहां बीजेपी का वजूद आज भी सीमित है. कर्नाटक के बाहर बीजेपी को तेलंगाना में कुछ सीटें मिल सकती है. बाकी आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में उसकी सारी कवायद धरी की धरी रह सकती है. हां आंध्रपदेश में बीजेपी चंद्रबाबू नायडू के संपर्क में जरूर है. लेकिन अटलजी के जमाने में दोनों पार्टियों के बीच जो रिश्ते थे उस भरोसे की बहाली होना मुश्किल दिख रहा है.
खुद चंद्रबाबू नायडू भी बीजेपी को लेकर फूंक फूंक कर कदम बढ़ा रहे हैं. तमिलनाडु में इस बार बीजेपी रजनीकांत के सहारे कोई खेल करने की जुगत में थी, लेकिन ज़मीनी हकीकत ऐसी है कि पीएम मोदी के प्रशंसक रजनीकांत भी बीजेपी के पक्ष में बोलने से बच रहे हैं. रही बात केरल की तो वहां कांग्रेस जीते या लेफ्ट एनडीए का बटुआ खाली ही रहेगा. इंडिया गठबंधन इस बार पिछले चुनाव से थोड़ा ही सही आगे जरूर रहेगा.
राम मंदिर और हिंदुत्व की लहर!
हालांकि हिंदुत्व की लहर पर सवार बीजेपी अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन के बाद इंडिया गठबंधन को चुनौती के काबिल भी नहीं मान रही. पीएम मोदी के बाद अब बीजेपी का हर नेता. ‘अबकी बार, 400 पार’ का नारा दे रहा है. ऐसा माहौल बना रहा है मानो पूरा मैदान खाली है. लेकिन विपक्ष इसे बीजेपी का आत्मविश्वास मानने से इनकार कर रहा है. इंडिया गठबंधन के नेताओं का दावा है कि उनका गठबंधन जैसे जैसे मजबूत हो रहा है बीजेपी का डर बढ़ता जा रहा है. बीजेपी इसी खुन्नस में विपक्षी नेताओं को ईडी और सीबीआई के जरिए परेशान कर रही है.
चुनाव आयोग से भी मनचाहा फैसला करवा रही है. लिहाजा मुमकिन है कि अगर जनता बीजेपी के खिलाफ भी वोट दे तब भी चुनाव आयोग वही नतीजा सुनाएगा जिसका नारा बीजेपी जोर शोर से लगा रही है. सुप्रीम कोर्ट में चंडीगढ़ मेयर चुनाव की धांधली उजागर होने के बाद विपक्ष की आशंका पर लोगों का यकीन भी बढ़ने लगा है. इलेक्टोरल बॉन्ड पर बैन से भी बीजेपी बैकफुट पर है और सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने भी उसे बहुत बड़ा झटका दिया है. जाहिर है अगर इंडिया गठबंधन इन मुद्दों को जनमानस तक पहुंचा पाए, तो एनडीए को बड़ा नुकसान हो सकता है.
ज़मीन पर इंडिया गठबंधन
लोकसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है. और चुनाव आयोग अब किसी भी दिन तारीखों की घोषणा कर सकता है. बीजेपी और एनडीए के पास पीएम मोदी जैसा एक मजबूत चेहरा है. तो साथ ही चुनाव लड़ने के लिए जरूरी संसाधन और मजबूत प्रचार तंत्र भी है. मीडिया में भी वही नैरेटिव हावी दिखता है. जो बीजेपी बनाना चाहती है.
यही वजह है कि ऊपरी तौर पर इंडिया गठबंधन एनडीए के मुकाबले में बहुत कमजोर दिखता है. लेकिन ज़मीन पर उसकी उपस्थिति लगातार मजबूत हो रही है. बीजेपी समर्थकों का मनोबल बढ़ाने के लिए भले ही 400 पार का नारा दे. लेकिन उसे भी पता है कि बेरोजगारी और किसानों की नाराजगी उसे भारी पड़ सकती है. अगर सरकार से नाराज तबके को इंडिया गठबंधन मजबूत विकल्प लगा तो पासा पलट भी सकता है.
कांग्रेस की महत्वाकांक्षा
कमियां हर जगह होती है. कोई भी व्यक्ति या नेता पूर्ण नहीं हो सकता. पार्टी और गठबंधन भी लोगों के समूह और सामूहिक दबाव से बनते हैं. ऐसे में कमियां यहां भी होगी ही. मसलन अगर नीतीश कुमार सिर्फ यही शौक रखते थे कि इंडिया गठबंधन में उन्हें अभिभावक का औपचारिक दर्जा मिले, तो कांग्रेस को ये पहले ही दे देना चाहिए था.
विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस अगर बड़ा दिल दिखाती तो समाजवादी पार्टी के साथ कड़वाहट न बढ़ती. सीट शेयरिंग का विवाद भी पहले ही हल हो गया रहता. ममता के मन की बात भी कांग्रेस को किसी और के जरिए पहले ही जान लेनी चाहिए थी. असमंजस पहले खत्म हो जाना चाहिए था. जमीन पर साझा रैलियों का सिलसिला शुरू हो जाना चाहिए था.
लेखक – वरिष्ठ पत्रकार मुन्ना कुमार सिंह
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