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कोताही, ‘करप्शन’ और कछुए की चाल: सुपेबेड़ा मार्ग में 1 करोड़ 50 लाख के पुल को चाट रहा दीमक, 2 साल में भी अधूरा, मरीज, स्कूली बच्चे और 12 गांव के लोग हलाकान, ठेकेदार, SDO और इंजीनियर गायब ?

साहब और कितने साल लगेंगे …?

गिरीश जगत, गरियाबंद। छत्तीसगढ़ के गरियाबंद के सुपेबेड़ा को कौन नहीं जानता. यहां के लोगों को नरभक्षी बीमारी एक के बाद एक मौत के मुंह में धकेल रही है, लेकिन अब तक कोई ठोस इलाज नहीं मिल पाया है. आए दिन मरीजों को दूसरे शहर ले जाना पड़ता है, लेकिन इन सबके बीच पुल रोड़ा बन गया है. दो साल हो गए हैं, लेकिन पुल निर्माण नहीं हुआ है, जिससे मरीजों, स्कूली बच्चे और राहगीरों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है.

सुपेबेड़ा मार्ग में 1 करोड़ 50 लाख के पुल को दीमक चाट रहा है. 2 साल में भी पुल अधूरा है. रोजाना मरीज, स्कूली बच्चे और 12 गांव के को परेशानियों का सामना करना पड़ता है. ठेकेदार और इंजीनियर गायब लापता हैं. इंजीनियर का ऑफिस हमेशा बंद मिलता है. सरकारी पैसा का सब मिलकर खूब दुरुपयोग कर रहे हैं, जिसका सुध लेने वाला कोई नहीं है.

 

कछुए की चाल में निर्माण

दरअसल, देवभोग से करीब चार किलोमीटर दूरी पर लोक निर्माण विभाग के द्वारा वर्ष 2021.22 की में स्वीकृत राशि डेढ़ करोड़ की है, जो कि सुपेबेड़ा पहुंचमार्ग के बेलाट खड़का नाला पर पुल निर्माण कार्य चला रहा है. दो साल होने को है, लेकिन अब तक कार्य प्रगति पर ठेकेदार के द्वारा धीमी गति से पुल निर्माण कराया जा रहा है.

आंख पर पट्टी बांध बैठा विभाग

ठेकेदार और जिम्मेदारों की नाकामी को लेकर PWD को थोड़ा सा भी चिंता नहीं है, क्योंकि दस से बारह गावों के लोगों को देवभोग रोजना अपना जीवन यापन करने आना पड़ता है. मुख्यालय होने के कारणस्कूली बच्चे भी उसी मार्ग से होकर आते-जाते हैं, लेकिन किसी की नजर इधर नहीं पड़ती है.

सुपेबड़ा का भी नहीं रखा ख्याल

किडनी पीड़ित गाव सुपेबेडा के मरीजों को भी उसी रास्ते से लाया जाता है. विभाग के द्वारा इस पुल को अब तक पूरा नहीं करायया गया है, जिससे लोग हलाकान हैं. हर रोज लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन जिम्मेदारों के आंखों पर पट्टी बंधी हुई है.

बता दें कि पुल नहीं होने के कारण लोगों को दूसरे रास्ते से करीब 10-15 किलोमीटर घूमना पड़ता है. बरसात के महीने में पानी लबालब भरा जाता है, लोगों की परेशानी बढ़ जाती है, लेकिन सरकारी सिस्टम को कुछ नहीं दिख रहा है.

अधिकारी नहीं देते ध्यान

अधिकारियों का कोई नियंत्रण नहीं है, जिसके चलते ठेकेदार के द्वारा अपनी मनमानी किया जा रहा है. कहा जा रहा है कि इसमें एक नेता का हाथ है, जिसके कारण अधिकारी और ठेकेदार बेखौफ हैं. अपनी मनमानी इलाके में हावी है.

कार्यालय में ताला लटका मिलेगा

इतना ही नहीं लोक निर्माण विभाग का कार्यालय में हमेशा ताला लटका नजर आता है. एसडीओ और इंजीनियर आवास होने के बाद भी मुख्यालय में नजर नहीं आते है. ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि जब दफ्तर, सैलरी, गाड़ी से लेकर सब सरकार से मिलना है, तो काम का जायजा लेने और दफ्तर में बैठने में सिस्टम को क्या दिक्कत है, क्या अपने घर में रहकर सरकारी नुमाइंदे मलाई काट रहे हैं ?.

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