छत्तीसगढ़

मेरी क्रिसमस रिव्यू : असली सिनेमची की सच्ची डोज़ है कटरीना कैफ और विजय सेतुपति की ये फ़िल्म | Merry Christmas Review: This film of Katrina Kaif and Vijay Sethupathi is a true dose of real cinema.

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जब श्रीराम राघवन की लेटेस्ट रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘मेरी क्रिसमस’ (उन्होंने क्रेडिट्स के वक़्त ‘मेरी’ को ‘मैरी’ लिखवाया है, उनकी मर्ज़ी) देखके निकला तो दिमाग में सबा अकबराबादी (1908-1991) का एक कलाम चल रहा था.

ये कलाम भले ही सबा अकबराबादी का लिखा हुआ हो, लेकिन इसे ज़हन में पिरोने वाले इंसान का नाम है नुसरत फ़तेह अली ख़ान.

वो एक ऊंची सीढ़ी पर जाकर हमें भी उस सीढ़ी पर अपने साथ बिठा लेने की कामयाब कोशिश करते हुए कहते हैं:

सादगी तो हमारी ज़रा देखिए एतिबार आपके वादे पर कर लिया

बात तो सिर्फ़ इक रात की थी मगर इंतिज़ार आप का उम्र भर कर लिया

इश्क़ में उलझनें पहले ही कम न थीं और पैदा नया दर्द-ए-सर कर लिया

लोग डरते हैं क़ातिल की परछाईं से हम ने क़ातिल के दिल में भी घर कर लिया

एक रात की कहानी. एक मौत. एक से ज़्यादा हत्यारे. और क़ातिल की तलाश. साथ में, एक फ़िल्म देखने का अनुभव.

फिल्म शुरू होती है ये बताते हुए कि कहानी अभी की नहीं है. हम कुर्सी में ख़ुद को थोड़ा और धांस देते हैं. कहानी तब की है जब अभी की मुंबई को बॉम्बे कहा जाता था. और इस बात की तस्दीक होती है पीसीओ में डाले जा रहे अशोक स्तम्भ के 3 शेरों वाले एक रुपये के सिक्के से, वजन मापने वाली डिस्को लाइट से लैस मशीनों के विज़ुअल से, ट्रेन के टिकस (पढ़ें टिकट) के पीछे फ़िल्मी हीरो की तस्वीर के साथ छपे मोटिवेट करने वाले एक वाक्य से. इसपर मोहर तब लगती है जब शहर की सबसे जानी-पहचानी बिल्डिंग के टाइट क्लोज़-अप के बाद फ़्रेम ढीला होता है और ‘ज़िन्दगी कैसी है पहेली’ सरीखे मोड में जाकर इतना खुल जाता है कि सड़क पर चलता बदहाल हीरो दिखाई देता है, जिसे हीरो होते हुए भी, रास्ते की तलाश है.

यहां तक भले ही 12 से 15 या बहुत से बहुत 20 मिनट बीते होते हैं, लेकिन एक ख़ालिस फ़िल्मची अटक चुका होता है. उसको मालूम चल चुका होता है कि आगे जो भी पकेगा, अच्छा पकेगा.

फ़िल्म दो किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है. दोनों हिंदी ठीक से नहीं बोल पाते. इसका असर फ़िल्म के म्यूज़िक पर भी दिखता है, जिसके बारे में बाद में बात होगी. वापस दो मुख्य किरदारों पर – एल्बर्ट (विजय सेतुपति) और मरिया (कटरीना कैफ़). दोनों क्रिश्चियन. दोनों क्रिसमस की रात एक रेस्टोरेंट में मिलते हैं और मिलते ही जाते हैं. इतना मिलते हैं कि एक-दूसरे के घर पर पाए जाते हैं. और फिर अपने-अपने रास्ते हो जाते हैं. उनके रास्ते अलग होते हैं, फिर टकराते हैं, और कहानी खुल जाती है. इसी बीच एक खून होता है. थाना-पुलिस होता है. कहानी इतनी खुल जाती है कि उस मैदान में रग्बी खेला जा सकता है. अंत में सब कुछ एक थाने में सिमट जाता है और थिएटर के संकरे गेट से निकलते हम और आप ये समझ नहीं पाते हैं कि अमुक किरदार के लिए हंसे या रोएं.

इक्कीसवें दशक में, ‘मेरी क्रिसमस’ श्रीराम राघवन की बनायी छठी फ़िल्म है, और ये बगैर किसी संशय के कहा जा सकता है कि ये आदमी हमें हर बार एक नया मसाला लाकर दे रहा है. ‘एक हसीना थी’ से शुरू करने वाला ये डायरेक्टर ‘जॉनी गद्दार’ बनाते हुए ‘मेरी क्रिसमस’ पर आ पहुंचा है. इस बीच इन्होंने ‘अन्धाधुन’ भी बनायी. वेरायटी का इससे बड़ा उदाहरण और कहां मिल पायेगा? लेकिन इन सभी में राघवन की छाप शामिल है. इनकी कहानी एक क्रिकेट मैच सरीखी होती है – शुरुआती पॉवरप्ले में मज़बूत, रनखोर खिलाड़ियों का इंट्रो. फिर बीच के ओवरों में मिडल ऑर्डर द्वारा कहानी को आगे ले जाना और दर्शकों के मन में ये ख़्याल पैदा करवाना कि ‘आगे क्या होगा?’ इसके बाद, आख़िरी ओवरों में पॉवर हिटर्स को लेकर आना और कहानी का वारा-न्यारा करवा देना. एकदम ऐसा ही इस फ़िल्म में भी हुआ है.

फ़िल्म में दो बड़े लोग हैं जिन पर हमारा फ़ोकस रहता है – कटरीना कैफ़ और विजय सेतुपति. ये दो लोग जिस तरह से अपने डायलॉग बोलते हैं, ऐसा कहा जा सकता है कि रिचर्ड एटनबरो की बनायी ‘गांधी’ के बाद पहली बार कोई ऐसी ‘हिंदी केन्द्रित’ फ़िल्म बनी है, जिसके मुख्य किरदारों को हिंदी नहीं आती. लेकिन इसके बावजूद दर्शक के तौर पर आपको दिक्कत महसूस नहीं होगी. क्यूंकि फ़िल्म में डिलीवरी से कहीं ज़्यादा अहमियत कहानी को मिली हुई है.

फ़िल्म ‘मेरी क्रिसमस’ में विजय सेतुपति और कटरीना कैफ़ के बाद जो सबसे बड़ा ‘कलाकार’ है, वो है इसका बैकग्राउंड म्यूज़िक. असल में, ये फ़िल्म अपने पार्श्व संगीत के दम पर ही खड़ी रही है, वरना इसमें ऐसा कुछ भी बहुत विस्मय से भर देने वाला नहीं है. फ़िल्म का बैकग्राउंड म्यूज़िक आपकी उंगली पकड़, आपको ऐसी जगह ले जाकर खड़ा कर देता है, जहां आप ख़ुद को आह भरते हुए पाते हैं. इतना यकीन मानिए कि ये आसान काम नहीं है. और असल में, सारे नंबर यहीं बटोरे गए हैं. क्लाइमेक्स के नज़दीक ये मालूम भी चलता है कि वॉयलिन की किलकारियों और ड्रमों की तालमय भड़भड़ी के बीच एक बहुत बड़ी घटना घटित हो चुकी थी, जिसका फ़िल्म के स्वाद और निष्कर्ष से पूरा सम्बन्ध था. हालांकि, श्रीराम राघवन की फ़िल्में देखी जायेंगी तो मालूम पड़ेगा कि ये बहुत अनोखा मौका नहीं था. ‘मेरी क्रिसमस’ फ़िल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक बाकायदा एल्फ़्रेड हिचकॉक की फ़िल्मों के बैकग्राउंड स्कोर की याद दिलाता है, ख़ासकर ‘नॉर्थ बाय नॉर्थवेस्ट’ की. इन दोनों डायरेक्टर्स में कहानियों के कहने के मामले में ख़ूब समानताएं मिलती हैं. कौन किस से प्रभावित है, ये जन्म की तारीख देखकर पता लगाया जा सकता है.

फ़िल्म में कुछ चीज़ें हैं जिन्होंने अपनी तरफ़ ध्यान खींचा है. इसमें 80 या शुरुआती 90 के दशक का हिंदी सिनेमा एक बड़ी चीज़ है. फ़िल्म में लगातार ऐसे मौके आते हैं जब आप, बतौर फ़िल्मची, टाइम ट्रैवेल कर रहे होते हैं. ये सब कुछ कैमरा और साउंड के ज़रिए करवाया जाता है. उस समय के फ़िल्मी पोस्टर, पीछे बजते गाने आदि, सब कुछ स्थापित करते हुए चलते हैं. ये भी डायरेक्टर साहब की एक जानी-पहचानी टेक्नीक है. इन्होंने अपनी फ़िल्म ‘जॉनी गद्दार’ में धर्मेन्द्र की मृत पत्नी से ‘मोरा गोरा अंग लई ले’ गवाया है. ‘अन्धाधुन’ में डेविड धवन के भाई अनिल धवन को लेकर आया गया है. ‘मेरी क्रिसमस’ में 1973 में आई ‘राजा रानी’ का गाना ‘जब अंधेरा होता है आधी रात के बाद’ फ़ीचर हुआ है. अबसे 50 साल पहले बना ये गाना कहीं से भी मिस-फ़िट नहीं मालूम देता. फ़िल्म बनाने वाले ने इस पीढ़ी के लिए यूं भी एक नया डायमेंशन खोला है. इसके साथ ही बस की टिकट पर राजेश खन्ना छपे मिलते हैं और लिखा होता है – It is the darkest before the dawn. मैं तो ये भी कहता हूं कि अमिताभ की फ़िल्म का नाम था ‘डॉन’. खैर, इस फ़िल्म में एक सीक्वेंस से दूसरे में जाने के लिए तमाम आवाज़ों का इस्तेमाल किया गया है, फिर वो चाहे मिक्सर की हो या लकड़ी काटने वाली मशीन की. ये चीज़ें 1989 में आई ‘परिंदा’ में ख़ूब देखने को मिली थीं.

इस फ़िल्म को देखते हुए एक आदमी और याद आया – प्रियदर्शन. वो फ़िल्म डायरेक्टर जिसने हिंदी दर्शकों को ‘चुप चुप के’, ‘हेरा-फेरी’, ‘हंगामा’, ‘हलचल’, ‘भूल भुलैया’ जैसी फ़िल्में दीं. ये डायरेक्टर अपनी कॉमेडी के लिए जाना जाता है. इनके काम में एक बात हर मौके पर मिलेगी – फ़िल्म के अंतिम हिस्से में सब कुछ होने लगता है. प्रियदर्शन की फ़िल्म के क्लाइमेक्स में वो ये नहीं देखते कि क्या लॉजिकल है और क्या नहीं. वो पूरी कहानी इसी मौके के लिए तैयार करते हैं, जहां दर्शकों को सबसे नॉन-सेन्स मोड में ले जाया जा सके. जबकि श्रीराम राघवन इसके ठीक उलट हैं. श्रीराम शुरुआत से ही अपनी कहानी हर दिशा में फैलाना शुरू कर देते हैं, जिससे देखने वाला तुक्का मारता फिरे. इसके बाद वो आख़िरी के हिस्से में एक के बाद एक तार जोड़ते हैं और अपने दर्शक को बताते हैं कि असल में सारा मामला उसकी कल्पनाशक्ति के कहीं बाहर घटित हो रहा था.

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ये सारी तिकड़मबाज़ी आपको तब मिलेगी, जब आप इसे देखने पहुंचेंगे. और इस सबके लिए आपको श्रम करना पड़ेगा. फ़िल्म ज़मीन पकड़ने के लिए वक़्त मांगती है. यदि ये वक़्त आपके पास है, तो ये फ़िल्म आपके लिए है. यदि आप उनमें से हैं, जिन्हें पर्दे पर बूढ़े हो चले हीरोज़ की कृत्रिम बॉडी पर आती सीटी की आवाज़ें ये बताती हैं कि सिनेमा लौट आया है, तो आपको – मेरी क्रिसमस.

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