
गिरीश जगत की रिपोर्ट। गरियाबंद। छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले से महज़ 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नागाबुड़ा सर्कल मुख्यालय के कृषक सूचना केंद्र में बीते दिनों जो मंजर दिखा, वो किसी सरकारी लापरवाही की मामूली मिसाल नहीं, बल्कि एक सुबूत है कि कैसे योजनाएं कागज़ों में दमकती हैं और ज़मीन पर सड़ जाती हैं।
यहां लाखों रुपये की कृषि दवाएं – कीटनाशक, जैविक खाद, फफूंदनाशक और कल्चर – ट्रैक्टर में लादकर गांव के बाहर खुले मैदान में यूं फेंक दी गईं जैसे कोई कूड़े का ढेर हो। वजह? बरसात में कमरे से उठती बदबू और पंचायत की विवशता।
दरअसल, जिन रासायनिक बोतलों और पैकेट्स को किसानों की फसल बचाने और उपज बढ़ाने के लिए भेजा गया था, वो सालों तक एक बंद कमरे में यूं ही सड़ते रहे। न निगरानी हुई, न उपयोग। और जब बदबू उठने लगी, तो उन्हें फेंक दिया गया – सिस्टम के मुंह पर एक करारा तमाचा।
जब योजनाएं सिर्फ फाइलों की शोभा बन जाएं…
जिन योजनाओं के तहत ये दवाएं खरीदी गई थीं, उनका उद्देश्य था किसानों को उन्नत कृषि तकनीक सिखाना, “प्रदर्शनी योजनाओं” के ज़रिए जागरूकता फैलाना। पर असल में हुआ यह कि ये दवाएं कभी किसानों तक पहुंची ही नहीं।
स्थानीय उपसरपंच तोमस साहू की मानें तो – “कमरे में दरवाज़ा टूट चुका था, बदबू से आस-पास का उपस्वास्थ्य केंद्र तक प्रभावित हो रहा था। कई बार प्रशासन को लिखा गया लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। अंत में ग्रामवासियों ने मिलकर इन्हें गांव से बाहर फेंकने का फैसला लिया।” यह कहना महज़ विरोध नहीं, बल्कि सिस्टम के चेहरे पर पड़ा एक करारा थप्पड़ है।
7 लाख की सड़न: कौन जिम्मेदार?
सूत्रों के मुताबिक जिन रासायनिक उत्पादों को फेंका गया, वे तीन ट्रैक्टर-ट्रॉली में भरे हुए थे और उनकी कीमत अनुमानतः 7 लाख रुपये से अधिक थी। सालों तक ये सामग्री बिना उपयोग के बंद पड़ी रही – एक बंद कमरे में जहां किसानों के भविष्य के सपने धूल और सड़न में तब्दील हो गए।
वर्तमान में पदस्थ ग्रामीण विस्तार अधिकारी (REO) तरुण कश्यप ने कहा –“मैं केवल पिछले एक साल से यहां हूं। मेरे आने से पहले ये दवाएं कमरे में बंद पड़ी थीं। मैंने विभाग को इसकी जानकारी दी थी।”
अब सवाल उठता है – किसके कार्यकाल में ये खरीदी गईं? किसने रिसीव किया? स्टॉक की मॉनिटरिंग क्यों नहीं हुई?
‘आपके माध्यम से जानकारी लगी’ – उपसंचालक की चौंकाने वाली प्रतिक्रिया
जिला कृषि उपसंचालक चंदन राय ने जबाव में कहा –“आपके माध्यम से पहली बार जानकारी मिली है। मामले की जांच कराएंगे।”
यह जवाब सुनकर जनता को राहत नहीं, बल्कि और चिंता होती है – क्या जिला मुख्यालय से महज़ 6 किलोमीटर की दूरी पर रखे लाखों की सामग्री की सुध लेने वाला कोई नहीं था? क्या विभागीय मॉनिटरिंग व्यवस्था इतनी लचर हो चुकी है?
क्या ये सिर्फ नागाबुड़ा की कहानी है?
यह मामला महज़ एक गांव का नहीं है, बल्कि पूरे सिस्टम की उस मानसिकता का प्रतिबिंब है जिसमें योजनाएं “खर्च हुई राशि” के आंकड़ों तक सीमित हैं, न कि जमीनी उपयोगिता तक। सरकार ने पैसा दिया, विभाग ने खरीदी की, पर वितरण, निगरानी और उपयोग – सब फेल।
जिला प्रशासन और कृषि विभाग की संयुक्त जवाबदेही तय होनी चाहिए। केवल जांच की बात करके जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना अब और बर्दाश्त नहीं।
अगर ऐसी लापरवाही पर सख्त कार्रवाई नहीं हुई, तो यह सिलसिला रुकने वाला नहीं। किसानों की उम्मीदें यूं ही सड़ती रहेंगी, योजनाएं यूं ही बदबू मारती रहेंगी और सरकार यूं ही ‘कागज़ी कामयाबियों’ की ढोल पीटती रहेगी।