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आदिवासी चेहरों के राजनीतिक भविष्य पर संकट: बिन्द्रानवागढ़ हारने के बाद से मोह भंग, ‘800’ की चोट पर नमक, उबल रहा सियासी ज्वालामुखी, पढ़िए अधूरी मरहम पट्टी की पूरी कहानी

पुरुषोत्तम पात्र की कलम से….

एक समय छत्तीसगढ़ भाजपा का अभेद्य गढ़ कहे जाने वाला बिन्द्रानवागढ़ आज उपेक्षा की राख में दबा सुलग रहा है। जहां कभी आदिवासी नेतृत्व को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, वहां आज वे अपनी ही पार्टी में हाशिए पर खड़े हैं। ‘800 वोटों’ की मामूली हार ने न केवल एक किला गिरा दिया, बल्कि उस पर मंडरा रहे राजनीतिक अनदेखी के बादलों को भी उजागर कर दिया है।

भाजपा सरकार में सत्ता की मलाई बंटने के दौरान बिन्द्रानवागढ़ के आदिवासी नेताओं को लगभग नजरअंदाज कर दिया गया। निगम-मंडल से लेकर संगठनात्मक नियुक्तियों तक राजिम के चेहरों को आगे किया गया, जबकि गोवर्धन मांझी, डमरूधर पुजारी, भागीरथी मांझी, बाबा उदयनाथ जैसे सशक्त आदिवासी नेताओं को या तो दरकिनार कर दिया गया या फिर उन्हें संतोष के नाम पर ‘खाली कुर्सी’ थमा दी गई। यह मरहम नहीं, राजनीतिक अपमान की पट्टी थी — जो अब चुभने लगी है।

चुपचाप दिखने वाली यह नाराज़गी अब भीतर ही भीतर ज्वालामुखी बन रही है। भाजपा की सत्ता होने के कारण खुलकर विरोध नहीं हो रहा, पर कार्यकर्ता और नेता एक अलक्षित विस्फोट की स्थिति में हैं। भारतीय जनता पार्टी का अभेद्य किला, आज खुद अपनी ही दीवारों में दरारों से जूझ रहा है।

आदिवासी राजनीति का यह केंद्र अब हाशिये पर धकेल दिया गया लगता है। एक मामूली अंतर से चुनाव हारना तो नियति का खेल था, लेकिन उस हार के बाद जिस तरह संगठन ने घावों पर मरहम के नाम पर नमक छिड़का, उसने पार्टी के भीतर दबे आक्रोश को धीरे-धीरे ज्वालामुखी की शक्ल दे दी है।

बिन्द्रानवागढ़ में क्यों पसरा है सन्नाटा ?

बिन्द्रानवागढ़ में आज सन्नाटा है — नेताओं के चेहरों पर चुप्पी है और दिलों में उठती लहरें कह रही हैं कि चोट गहरी है। ये सिर्फ़ हार नहीं थी, बल्कि एक संदेश था — आदिवासी नेतृत्व को नजरअंदाज करने का खामियाजा भुगतना पड़ेगा। और जब हार की वजह महज 800 वोट हों, तब तो सवाल और भी तीखे हो जाते हैं।

इस रिपोर्ट में हम जानेंगे कि कैसे एक मामूली अंतर की पराजय ने आदिवासी राजनीति के गढ़ को झकझोर दिया, कैसे दर्जनों वरिष्ठ नेता किनारे कर दिए गए, और कैसे संगठन द्वारा दी गई मरहम पट्टी भी अब लोगों को सिर्फ़ ‘मरहम दिखावा’ लग रही है।


बिन्द्रानवागढ़: जो था कभी भाजपाई शान का प्रतीक

1957 से अब तक 15 विधानसभा चुनावों में से 9 बार जनता ने जनसंघ और भाजपा को चुना। वह भी तब जब 2003 से पहले प्रदेश और केंद्र में कांग्रेस का वर्चस्व रहा। फिर भी यहां के तपे तपाए कार्यकर्ताओं ने भाजपा का परचम बुलंद रखा। पर अब वही क्षेत्र उपेक्षा की आग में जल रहा है।

बिंद्रानवागढ़ को गढ़ बनाने वाले सैकड़ों कार्यकर्ता और नेता आज सवालों के घेरे में हैं — लेकिन सवाल पूछने की हिम्मत किसी में नहीं। पार्टी की सत्ता है, अनुशासन का डंडा लहराने को तैयार खड़ा है, और जो बोलता है — वो राजनीतिक ‘वनवास’ को आमंत्रण देता है।


‘800 वोट’ की हार: सियासत की वो टीस जो गूंज रही है…

2023 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार गोवर्धन मांझी सिर्फ़ 800 वोटों से हार गए। एक तरफ़ कांग्रेस के चंपालाल देवांगन, दूसरी तरफ़ भाजपा का पुराना किला — लेकिन भीतरघात की ऐसी आग लगी कि भाजपा का यह गढ़ भरभरा कर गिर गया।

यही गोवर्धन मांझी 2013 में 32 हज़ार वोटों से ऐतिहासिक जीत दर्ज कर संसदीय सचिव बने थे। पढ़े-लिखे, लोकप्रिय और स्वाभाविक दावेदार। इतना ही नहीं, भविष्य की सरकार में अहम चेहरा माने जाने की चर्चा ने ही उनकी हार की स्क्रिप्ट लिख दी। भीतरघातियों ने मैदान में ही नहीं, दिलों में भी जहर बो दिया। और नतीजा? भाजपा अपनी ही ज़मीन पर मात खा गई।


जब नियुक्तियां बनीं मरहम की जगह नमक

बिंद्रानवागढ़ के कार्यकर्ताओं को आशा थी कि सरकार बनने के बाद निगम-मंडल और संगठनात्मक नियुक्तियों में उन्हें भरपूर प्रतिनिधित्व मिलेगा। पर हुआ उल्टा। गरियाबंद जिले से दो नेताओं को निगम में स्थान मिला, दोनों राजिम से। बिंद्रानवागढ़? सिर्फ़ तमाशबीन।

डमरूधर पुजारी — दो बार के विधायक, कभी चुनाव न हारे, और उनके पिता बलराम पुजारी — तीन बार के विधायक। फिर भी उन्हें दरकिनार कर दिया गया। बाबा उदयनाथ, आदिवासी नेता भागीरथी मांझी, हलमन ध्रुवा — सब हाशिए पर भेज दिए गए।


कैसे तैयारी की गई राजिम मंडली ?

भाजपा की जिला कार्यकारिणी में बिंद्रानवागढ़ से सिर्फ़ 7 कार्यकर्ताओं को शामिल किया गया, जबकि 17 सदस्यीय टीम में अधिकांश चेहरे राजिम विधानसभा क्षेत्र से हैं। बिंद्रानवागढ़, जिसे कभी संगठन की रीढ़ माना जाता था, आज वहां के नेताओं को उपाध्यक्ष या सदस्य बना कर चुप कराने की कोशिश की जा रही है।

देवभोग जैसे मंडल को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया, जबकि वहां के कार्यकर्ताओं ने दशकों से ज़मीन पर संघर्ष किया है।
गुरुनारायण तिवारी, जिनके पिता जनसंघी थे और जो खुद पिछले 35 सालों से भाजपा के लिए खपते आ रहे हैं — उन्हें महज़ एक उपाध्यक्ष पद थमा दिया गया। क्या यही है ईमानदारी से की गई संगठन की मरहम पट्टी? या फिर बस पॉलिटिकल पेन किलर?

संगठन का अधूरा मरहम, कितना भरेगा ज़ख्म ?

संगठन में भी बिंद्रानवागढ़ की उपेक्षा की गई, जिसका दर्द लगातार बना रहा। लंबे अंतराल के बाद भाजपा जिला कार्यकारिणी का गठन हुआ। 17 कार्यकर्ताओं की टीम में सिर्फ़ 7 कार्यकर्ताओं को जगह दी गई। ज़िला अध्यक्ष अनिल चंद्राकर बिंद्रानवागढ़ से आते हैं। बाकी प्रभावशाली पद राजिम विधानसभा क्षेत्र के चेहरों को दिए गए। बाकी 6 पदों पर बिंद्रानवागढ़ के नेताओं को ज़िम्मेदारी देकर साधने की कोशिश की गई है।

ज़िला कार्यकारिणी में प्रभावशाली पदों पर सबसे ज़्यादा 5 चेहरे गरियाबंद मंडल से हैं। गोहरापदर और अमलीपदर मंडल से दो-दो नाम दिए गए, झाखरपारा से सिर्फ़ 1, जबकि देवभोग मंडल से किसी भी नेता को जगह न मिलना चर्चा का विषय बना हुआ है।

सुधीरभाई पटेल, कुंजबिहारी बेहरा, रामरतन मांझी, योगेश शर्मा, रामदास वैष्णव, भागीरथी मांझी, खीरलाल नागेश, शोभाचंद्र पात्रा, लंबोदर नेताम, निर्भय सिंह ठाकुर, जयराम साहू, तनसिंह मांझी जैसे कई नाम हैं, जिन्हें जगह दी जानी चाहिए। जनसंघी पिता के पुत्र गुरुनारायण तिवारी जैसे नाम भी हैं, जो पिछले 35 वर्षों से सेवा कर रहे हैं, लेकिन उन्हें जिला कार्यकारिणी में महज उपाध्यक्ष का पद देकर संतुष्ट करने की कोशिश की गई है।


अंदर ही अंदर उबलता लावा: कब फटेगा सियासी ज्वालामुखी?

बिंद्रानवागढ़ में चर्चा है कि कार्यकर्ताओं का गुस्सा अब आत्मा में पैठ चुका है। लोग अभी चुप हैं, लेकिन आने वाले समय में यह चुप्पी गर्जना में बदल सकती है। भाजपा में रहकर भी भाजपा से असंतुष्ट ये लोग संगठन के फैसलों को लेकर मन ही मन विद्रोह कर रहे हैं।

सत्ता की मजबूरी उन्हें चुप रहने पर मजबूर कर रही है, लेकिन एक चुनावी चूक, एक संवाद की कमी और एक और उपेक्षा — और यह चुप्पी ज्वालामुखी बन कर फूट पड़ेगी।


संपादकीय टिप्पणी: क्या भाजपा ने अपना ही किला ढहा दिया?

बिंद्रानवागढ़ की हार को केवल 800 वोटों की हार कह कर टाल देना आत्मघाती होगा। यह हार भरोसे की थी, यह हार सम्मान की थी, और यह हार संगठन की चूक की थी। यदि भाजपा ने अब भी सबक नहीं लिया, तो यह आग सिर्फ बिंद्रानवागढ़ तक नहीं रुकेगी — यह पूरे गरियाबंद जिले को अपनी चपेट में ले सकती है।

आज जरूरत है, राजनीतिक दिखावे की नहीं, बल्कि आदिवासी नेतृत्व को सम्मान देने की। जरूरत है, पुराने और वफादार कार्यकर्ताओं को फिर से विश्वास में लेने की। वरना, अगली बार 800 की नहीं, 8000 की हार भी चौंकाने वाली नहीं होगी।

लेखक पुरुषोत्तम पात्र, संपादक, MPCG टाइम्स

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