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तलाक-ए-किनाया, तलाक-ए-बैन के खिलाफ केंद्र को सुप्रीम कोर्ट का नोटिस

नई दिल्ली:  

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक मुस्लिम डॉक्टर की याचिका पर केंद्र से जवाब मांगा, जिसमें तलाक-ए-किनाया और तलाक-ए-बैन सहित सभी तरह के एकतरफा और न्यायिकेतर तलाक को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की गई है. कर्नाटक के कलबुर्गी की याचिकाकर्ता डॉ. सैयदा अंबरीन का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय कर रहे हैं. न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर और न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला की पीठ ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग सहित केंद्र को नोटिस जारी किया. दलील में तर्क दिया गया कि ये प्रथाएं मनमानी, तर्कहीन और समानता के मौलिक अधिकारों के विपरीत हैं.

याचिका में कहा गया है : याचिकाकर्ता के माता-पिता को दहेज देने के लिए मजबूर किया गया और बाद में उसे बड़ा दहेज नहीं मिलने पर प्रताड़ित किया गया. याचिकाकर्ता के पति और उसके परिवार के सदस्यों ने उसे शारीरिक-मानसिक रूप से प्रताड़ित किया. जब याचिकाकर्ता के पिता ने दहेज देने से इनकार कर दिया तो उसके पति ने उसे एक काजी और वकील के माध्यम से एकतरफा न्यायिक तलाक यानी तलाक-ए-किनाया/तलाक-ए-बैन दे दिया, जो संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 के पूरी तरह से खिलाफ है.

तलाक-ए-किनाया अस्पष्ट शब्दों के माध्यम से तलाक है जिसका सीधा मतलब तलाक नहीं है. तलाक-ए-बैन अपरिवर्तनीय तलाक है, और तीन तलाक की प्रथा के विपरीत, पति को सिर्फ एक बार तलाक बोलने की जरूरत होती है.

याचिकाकर्ता ने कर्नाटक से प्रसूति और स्त्री रोग में एमएस की पढ़ाई की है. उन्होंने दावा किया कि उन्हें मध्यस्थता या सुलह की किसी भी प्रक्रिया के बिना जनवरी, 2022 में किनाया दिया गया था.

शीर्ष अदालत ने उनकी याचिका को मंगलवार को सुनवाई के लिए आने वाली इसी तरह की अन्य याचिकाओं के साथ जोड़ दिया.

याचिका में केंद्र को लिंग तटस्थ और धर्म तटस्थ तलाक के समान आधार और सभी नागरिकों के लिए तलाक की समान प्रक्रिया के लिए दिशानिर्देश तैयार करने का निर्देश देने की भी मांग की गई.

याचिका में कहा गया है कि याचिकाकर्ता को दहेज के लिए अपने डॉक्टर पति और उसके परिवार से मानसिक, मौखिक, शारीरिक और वित्तीय दुर्व्यवहार और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा. सार्वजनिक व्यवस्था और स्वास्थ्य के हित में एकतरफा अतिरिक्त न्यायिक तलाक पर प्रतिबंध लंबे अरसे से समय की जरूरत रही है.

आगे कहा गया है कि यह अदालत पहले ही विचार व्यक्त कर चुकी है कि तीन तलाक धर्म का अभिन्न अंग नहीं है. अनुच्छेद 25 केवल धार्मिक आस्था की रक्षा करता है, लेकिन ऐसी प्रथाओं की नहीं, जो सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता या स्वास्थ्य के विपरीत हो.






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