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भविष्य में भीषण जल संकट का सामना करेंगे लोग, पानी बचाने के प्रयास अभी से तेज करें

विस्तार

शहर की आबादी और क्षेत्रफल में तेजी से विस्तार हुआ है। केन्द्रीय भू गर्भ जल आयोगके सर्वे के अनुसार हम कुल पानी की खपत का खेती के काम में 90 प्रतिशत, घरेलू उपयोग में मात्र 7 प्रतिशत और उद्योगों में केवल 3 प्रतिशत पानी का उपयोग करते हैं। यदि खेती में लगने वाले पानी की मात्रा 10 प्रतिशत कम कर दी जाए तो घरेलू उपयोग के पानी की मात्रा बढ़ सकती है। हम चट्टानी क्षेत्र के मालवांचल और गंगा बेसिन का हिस्सा हैं। उद्योगों को पानी के उपयोग के मामले  में सरकार के अपने नियम कायदे हैं। सरकारी विभागों में जल वितरण और दोहन को लेकर आपस में समन्वय नहीं है। कुए, बोरिंग, तालाब, जलाशय और अन्य पेयजल स्त्रोत के प्रबंधन हेतु जिला, ब्लाक एवं ग्राम स्तर पर काम होना चाहिए। पानी के सही उपयोग के लिए हमे रिचार्ज, पुनर्चक्रीकरण और वर्षा जल के पुनर्भरण की दिशा में  काम करने की जरूरत है। 

प्रख्यात जल प्रबंधन विशेषज्ञ सुधीन्द्र मोहन शर्मा ने रविवार को साउथ तुकोगंज स्थित एक होटल में विश्व जल दिवस के उपलक्ष्य में संस्था सेवा सुरभि द्वारा आयोजित बढ़ते शहर घटता जल स्तर विषय पर विचार गोष्ठी में प्रमुख वक्ता के रूप में तथ्यों सहित अनेक रोचक और उपयोगी जानकारी दी। उन्होंने कहा कि सरकार अपने स्तर पर जल प्रबंधन की दिशा में बहुत कुछ कर रही है, लेकिन जब तक हम लोग भी इस दिशा में सचेत और गंभीर नहीं होंगे, हमें जल संकट का सामना करते रहना पड़ेगा। सन् 1918 में पैट्रिक ईडिज नामक एक अंग्रेज विशेषज्ञ ने तत्कालीन राज दरबार को पत्र भेजकर आगाह किया था कि शहर की कपड़ा मिलों के कुए बहुत अच्छे हैं और इनमें से कुछ बावडिय़ों को उपयोगी बना सकते हैं। इससे और हमारी नदी के संरक्षण से हमें आरक्षित जल भी मिल सकेगा। आरक्षित अर्थात संकट काल में वैकल्पिक व्यवस्था। उन्होंने एक कुए से दूसरे कुए तक पानी ले जाने का सुझाव भी दिया था, ताकि किसी एक कुए पर बोझ न पड़े। पानी का व्यवसायीकरण कतई नहीं होना चाहिए, लेकिन बढ़ती आबादी और शहर के बढ़ते क्षेत्रफल के कारण पानी का उपयोग लगातार बढ़ रहा है। शहर में 390 में से 237 कुओं में पानी आ रहा है। पानी की कमी के और भी कई कारण हैं, लेकिन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है मालवा क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति और अनियमित वर्षा, पर्यावरण का असंतुलन, मिट्टी का क्षरण, तालाबों एवं अन्य जल स्त्रोतों के जल का ठीक से उपयोग नहीं होने से भी जल संकट बना रहता है। 

पर्यावरणविद डॉ. ओ.पी. जोशी ने विभिन्न सरकारी विभागों की रिपोर्ट के हवाले से कहा कि 2019 में देश के 29 बड़े शहरों में भू जल समाप्त होने के संकेत दिए गए थे। इनमें इंदौर का भी नाम है। इंदौर के लिए इस रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्षा के जल को संग्रहित नहीं किया गया तो इंदौर डार्क झोन में चला जाएगा। इसके पूर्व 2002 में केन्द्रीय भू जल बोर्ड ने भी इंदौर में बोरिंग खनन पर रोक लगाने की सिफारिश की थी। 2010 में इंदौर सहित अन्य जिलों में भू जल समाप्त होने की चेतावनी भी दी गई थी। शहर का 70 प्रतिशत हिस्सा डार्क झोन में है। भूजल स्तर क्यों गिर रहा है तो इसके लिए यूकेलिप्टस के पौधों को जिम्मेदार माना गया था, जो बहुत तेजी से पानी खींचते हैं। हालांकि 2014 में इंदौर का भू जल स्तर बढ़ा भी। इसके बाद 2022 में एक बार फिर अच्छी स्थिति बनी। वर्तमान में हमें भू गर्भ जल की कमी के साथ प्रदूषित जल का भी शिकार होना पड़ रहा है। हमारा मालवा चट्टानी क्षेत्र है और काली मिट्टी में पानी के रिसाव की दर काफी कम होती है इसलिए मात्र 13 प्रतिशत पानी ही जमीन के अंदर पहुंच पाता है। 2009 में 466 बोरिंग के पानी के नमूने लिए गए थे, उनमें से 440 दूषित पाए गए। 2011 में 263 में से 240 नमूने प्रदूषित मिले। मतलब यह कि शहर में भू जल तो कम है ही प्रदूषित भी है। 2017-18 में 60 स्थानों से नमूने लिए गए इनमें से 59 स्थानों पर प्रदूषित जल मिला। कान्ह नदी के आसपास दोनों ओर एक किलोमीटर का पानी प्रदूषित है। नर्मदा का पानी जितनी तेजी से नए क्षेत्रों में सप्लाय होता है, उससे कहीं अधिक तेजी से नई कॉलोनी बन जाती है। इस स्थिति का सामना करने के लिए नागरिकों और सामाजिक संगठनों को भी आगे आना होगा।

विचार गोष्ठी का शुभारंभ सामाजिक कार्यकर्ता अनिल त्रिवेदी, पर्यावरणविद खुशालसिंह पुरोहित, प्रेस क्लब अध्यक्ष अरविंद तिवारी एवं उद्योगपति वीरेन्द्र गोयल, पूर्व महापौर डॉ. उमाशशि शर्मा और अभ्यास मंडल के रामेश्वर गुप्ता ने दीप प्रज्ज्वलन कर किया। अतिथियों का स्वागत कुमार सिद्धार्थ, पंकज कासलीवाल, राजेन्द्रसिंह आदि ने किया। विषय प्रवर्तन और संचालन रंगकर्मी संजय पटेल ने किया। अनिल त्रिवेदी ने चुटकी लेते हुए कहा कि पहले मनुष्य कहीं बसने के पूर्व पानी की तलाश करता था, लेकिन अब बसने के बाद पानी ढूंढता है। अब लोगों को भी पानीदार बनना होगा। आज बाजारीकरण हावी हो रहा है। जमीनों के दाम आसमान छू रहे हैं। ऐसे में तालाबों और नदियों का विस्तार करने की बात इस विचार गोष्ठी तक ही सीमित रह जाएगी। शहर के नागरिकों को मिल-जुलकर गंभीरता से सोचना होगा। विचार गोष्ठी में गौतम कोठारी, जयश्री सीका, अतुल शेठ, मेघा बर्वे, किशोर पंवार, भोलेश्वर दुबे, दीपक अधिकारी आदि ने भी अपने विचार रखे और विशेषज्ञों से अपनी जिज्ञासाओं का समाधान भी प्राप्त किया।

विचार गोष्ठी में रतलाम से आए पर्यावरणविद खुशालसिंह पुरोहित ने कहा कि सन् 91 में हमने 10 हजार किलोमीटर की यात्रा की थी। चंबल, बेतवा, बेसिन में रतलाम और मालवा के बहुत से जिले आते हैं। तब एक सर्वे में यह तथ्य सामने आया था कि हमें जो पेयजल मिलता है, उसका 12 प्रतिशत हिस्सा वाहन धोने में, 39 प्रतिशत शौचालय, 8 प्रतिशत रसोईघर और शेष पानी का उपयोग पीने में किया जा रहा है। रतलाम में एक पार्षद का सम्मान इसलिए किया गया कि उसने अपने वार्ड की सभी सडक़ें सीमेंट की बनवा दी थी। भू जल स्तर लगातार गिर रहा है। किसानों को 24 घंटे मुफ्त बिजली देना भी इस गिरते जल स्तर का एक प्रमुख कारण है। प्राकृतिक संसाधनों पर लोगों का ही अधिकार होना चाहिए। एक औसत परिवार पूरे वर्ष 1.60 लाख लीटर पानी का उपयोग करता है। नगर निगम एवं अन्य सरकारी विभागों को मिलकर इस दिशा में चिंतन करना चाहिए। 

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