
जगदलपुर। विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व का शुभारंभ स्थानीय काछिनगुड़ी में पर्व के पहले विधान काछनजात्रा के साथ हुआ। छह साल की पीहू साहू पर आरूढ़ काछन देवी ने बस्तर राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव को बेल कांटे के झूले में सवार होकर निर्विघ्न दशहरा पर्व मनाने की अनुमति दी। इस एतिहासिक पर्व की शुरुआत पर जनसैलाब देखा गया। परंपरानुसार गोलबाजार में रैला देवी की भी विधिवत पूजा अर्चना की गई।
भंगाराम चौक स्थित काछनगुड़ी में दशहरा पर्व मनाने के लिए काछन देवी पूजा विधान का आयोजन किया गया। राज परिवार के सदस्य, दंतेश्वरी मंदिर के प्रधान पुजारी, राजगुरु और मांझी-मुखिया शोभायात्रा के रूप में गाजे-बाजे के साथ काछनगुड़ी पहुंचे। परंपरानुसार भैरम भक्त द्वारा देवी का आह्वान किया गया। एक सप्ताह से व्रत-आराधना कर रही पीहू पर देवी सवार हो गई। बेल कांटों से बने झूले पर सवार काछन देवी से बस्तर राजपरिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव और माझी-चालकी दशहरा पर्व मनाने की अनुमति मांगी गई। देवी से अनुमति मिलने के बाद काछन देवी और दंतेश्वरी माई के जयकारे से गूंज उठा। काछन जात्रा पूजा विधान देखने के लिए बड़ी संख्या मे श्रद्धालु आए हुए थे।
देवी को गद्दी आसन प्रदान करते हैं
बस्तर संस्कृति के जानकार रूद्र नारायण पाणिग्राही ने बताया कि काछनगादी का शाब्दिक अर्थ देवी को गादी अर्थात गद्दी आसन प्रदान करना है। काछिन देवी रण के देवी मानी जाती हैं। मान्यता के अनुसार एक विशेष समुदाय की बालिका पर काछन देवी आरूढ़ होती हैं। काछिनगुड़ी में रस्म पूरा होने के बाद शहर के गोलबाजार में रैला देवी का पूजन किया किया। इस दौरान सुरक्षा व्यवस्था के लिए बड़ी संख्या में पुलिस बल तैनात था। इस मौके पर विधायक रेखचंद जैन, राजगुरू नवीन ठाकुर,राज परिवार के सदस्य समेत अन्य जन प्रतिनिधि व राजस्व विभाग के अधिकारी मौजूद थे।
ढाई सौ सालों से हो रही काछन देवी की पूजा
एक किंवदंती के अनुसार जगदलपुर बसाने से पूर्व यहां एक माहरा कबीला कहीं बाहर से आकर बस गया था। कबीला के मुखिया का नाम जगतू था। जगतू के समय में उसी के नाम पर वर्तमान जगदलपुर का नाम जगतूगुड़ा पड़ा था। उस कबीला को जब हिंसक पशुओं से प्राण बचाना मुश्किल हो गया। तब एक दिन कबीले का मुखिया जगतू बस्तर ग्राम तक गया और वहां के तत्कालीन नरेश दलपत देव से मुलाकात की। उसने उनसे अभय दान मांगा। आखेट प्रेमी राजा दलपत देव ने जगतू को आश्वस्त किया और एक दिन आखेट की तैयारी के साथ जगतूगुडा पहुंचे। उन दिनों राज्य का नाम चक्रकोट के बदले बस्तर प्रचलन में आ चुका था।
जगतूगुड़ा उन्हें भा गया इसलिए उन्होंने अपनी राजधानी बस्तर ग्राम से जगतूगुड़ा में स्थानांतरित कर ली। यह सन 1725 ईस्वी के कुछ ही समय बाद की घटना है। इससे माहरा कबीले की जान में जान आई। यह कबीला राजभक्त था। राजा ने भी उस कबीले को इतना सम्मान दिया कि दशहरा मनाने के लिए कबीले की इष्ट देवी काछन देवी से प्रतिवर्ष आशीर्वाद मांग कर अपने आप को कृतार्थ माना। प्रथा चल पड़ी और बस्तर दशहरे का प्रारंभिक कार्यक्रम स्थित हुआ। काछनगादी का अर्थ होता है काछन देवी की गद्दी जो कांटों की होती है।
कांटेदार झूले की गद्दी पर आसीन होकर जीवन में कंटकजयी होने का संदेश सांकेतिक दिया करती है। वह रणदेवी कहलाती है। काछन देवी बस्तर दशहरे को प्रतिवर्ष स्वीकृति सूचक और आशीर्वाद प्रदान करती हैं। माहरा जाति के लोगों की देवी को बस्तर के भूतपूर्व राजाओं द्वारा इस प्रकार प्राथमिक सम्मान दिया जाना सामाजिक सौहाद्र का यह सबसे बड़ा उदाहरण है। लगभग दो सौ पचास वर्षों से जगतू माहरा कबीला की देवी की सबसे पहले पूजा अर्चना हो रही है।
याद की जाएंगी रैला
काछनगुड़ी में काछनगादी हो जाने के बाद गोल बाजार में शाम को रैला पूजा होती है। रैला पूजा के अंतर्गत निर्धारण महिलाएं अपनी बोली भाषा में लोक गाथा प्रस्तुत करती हैं। जिसमें रैलादेवी का बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन मिलता है। एक किंवदंती के अनुसार रैलादेवी बस्तर के प्रथम चालुक्य नरेश अन्नाम देव की एक बहन थी। दुर्भाग्य से शत्रु सेना के सेनापति ने उसका अपहरण कर लिया था। अपहरण कर लेने के बाद सेनापति ने उसे छोड़ भी दिया था परंतु राज परिवार ने उसे अपवित्र समझ कर नहीं अपनाया। तब एक निर्धन परिवार को उस पर दया आई और उस परिवार ने राजकुमारी को बड़े प्यार से अपना लिया परंतु रैला में देवी को अपने राज परिवार के व्यवहार से ऐसा आघात पहुंचा था कि मौका देखकर उसने गोदावरी नदी में जल समाधि ले ली। उसकी जल समाधि से निर्धन परिवार को भारी दुख पहुंचा था। वह अपनी लाडली रैला का प्रतिवर्ष अपने ढंग से श्राद्ध मनाने लगे। रैलादेवी का वही श्राद्ध कर्म बस्तर दशहरा में रैला पूजा के नाम से जाना जाता है।
Posted By: Ashish Kumar Gupta