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Dilip Thakur: विरोध के बाद भी पत्रकार बने थे दिलीप भैया, शीर्ष पर रहे पर जमीन नहीं छोड़ी

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बात तब की है, जब दिलीप ठाकुर पत्रकार नहीं थे। वे कॉलेज के दिनों में भैया के सहपाठी थे, इसलिए अक्सर घर आया करते थे। कभी-कभी तो महीनों उनकी दिन-रात घर पर ही गुज़रती थी। मम्मी के हाथ का भोजन उन्हें बहुत पसंद था। हमारा परिवार राजनीतिक पृष्ठभूमि से है तो अक्सर राजनीतिक कार्यक्रमों में वे दोस्त होने के नाते उसमें शामिल होते थे।

एक बार किसी आयोजन के बैनर पोस्टर हम रात में बंधवा रहे थे। खंबे पर जो बांधने चढ़ा वो नशे में होने से उतरा ही नहीं। बहुत देर हो गई। मुझे याद है, दिलीप भैया ने उसे नीचे उतारने में अच्छी खासी मशक़्क़त की थी। इसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर कि भारत पदयात्रा में मैं सबसे छोटे पदयात्री के रूप में मध्य प्रदेश में शामिल था। दिलीप भैया भी अक्सर यात्रा में शामिल होने के लिए आते थे। एक बार महू में वे खुले आसमान में पेड़ के नीचे ही सो गए थे। वे जनसभाओं में भी सक्रियता के साथ अपनी भूमिका का निर्वाह करते थे। वे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते। घर की पृष्ठभूमि साधारण थी। शांत, सरल, सहज और सौम्यता ये ऐसे गुण हैं जो दिलीप भैया को सदैव दूसरों से एक कदम आगे रखते थे। हमने कभी उनके मुँह से ऊँची आवाज़ नहीं सुनी। हमेशा हंसते-मुस्कुराते छोटी-छोटी चुहलबाजियों के साथ अपना समय बिताते थे।

कॉलेज की पढ़ाई के बाद, बात करियर की आई। दिलीप भैया के पापा एवं उनका परिवार नहीं चाहता था कि वे पत्रकार बने। वे उन्हें कामधंधे में लगाना चाहते थे, काफ़ी विरोध था। एक बार पापा कल्याण जैन उनके पापा से मिलने गए और उन्हें खूब समझाया कि दिलीप की इच्छा पत्रकार बनने की है तो उन्हें बनने दें। आखिरकार उन्होंने पत्रकारिता में प्रवेश किया। वो दिन है और आज का दिन, वे शीर्ष पर रहे, कम अच्छे दिन भी देखे लेकिन कभी अपनी गंभीरता नहीं छोड़ी। पत्रकारिता से थोड़े फ्री हुए तो परिवार के लिए सदैव चिंतित रहते। हमेशा घंटो उनसे बात होती। पत्रकारिता की बजाय पारिवारिक निकटता होने से वे मुझसे अपने सुख दुख साझा करते। किस्सों की उनके पास भरमार थी।

वाकई पत्रकारिता जैसे उथल-पुथल चकाचौंध वाले माहौल में जिस तरह की शांति से उन्होंने अपना जीवन जिया उतनी ही शांति के साथ वे असमय हम सबसे विदा हो गए। गुरूर, घमंड आदि ऐसे विशेषण हैं जो कई पत्रकारों के साथ जुड़े हैं लेकिन दिलीप भैया उनमें थे जो शीर्ष पर रहकर भी ज़मीन से जुड़े प्रतीत होते थे। मजा तब आता जब आसपास के उनके कई सहयोगी पत्रकार अपना दम दिखाते लेकिन वे टेबल पर खामोशी से अपना काम करते रहते थे। एक ही संस्थान नईदुनिया में करीब 35 वर्षों की स्टैंडिंग भी असरदार थी। पत्रकार के रूप में उन्होंने बहुत दुनिया देखी लेकिन सब ऊंच-नीच, उतार-चढ़ाव अपने अंदर समेटे रहे। पत्रकारिता में रहते हुए कभी तन की परवाह नहीं की। बहुत तनाव भी झेले। यही तनाव तन को भी अपने साथ हमेशा-हमेशा के लिए ले गया। एक बेजोड़ पत्रकार को नमन….

(लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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