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कलेक्टर नहीं बनवा पाए खुद का सरकारी आवास: 14 साल से किराए के घरों में अधिकारी-कर्मचारी, जिला अस्पताल बना ‘रेफर सेंटर’, बस स्टैंड नहीं, पार्क नहीं

गिरीश जगत, गरियाबंद. छत्तीसगढ़ को बने 25 साल पूरे हो गए, लेकिन गरियाबंद जिला खुद अपने 14 साल का सफर भी अधूरा ही तय कर पाया है। जिला बनने के बाद भी यहां विकास की गाड़ी हमेशा पंचर ही रही। जिला मुख्यालय आज भी उन बुनियादी सुविधाओं से वंचित है, जिन्हें किसी भी जिले की पहचान कहा जाता है। स्थिति इतनी विचित्र है कि खुद कलेक्टर अपने सरकारी आवास की मंजूरी तक नहीं दिला सके। आधे से ज्यादा जिला अधिकारी किराए के मकानों में रहकर सरकारी फाइलें चला रहे हैं।

राज्योत्सव की तैयारी जोरों पर है, मंच सज रहे हैं, बैनर टंगे हैं, लेकिन सवाल अब भी वही है — क्या इन अधूरी व्यवस्थाओं के बीच सच में उत्सव मनाने का कोई औचित्य है? जनता पूछ रही है — “जब सुविधा नहीं, व्यवस्था नहीं, तो उत्सव किस बात का?” आइए जानते हैं, जिले की उन कमियों को जो इस जश्न पर सवालिया निशान लगा रही हैं।

जिला अस्पताल बना ‘रेफर सेंटर’

कहने को यह जिला अस्पताल है, लेकिन हकीकत में यह सिर्फ रेफर सेंटर बनकर रह गया है। 14 साल बीत जाने के बाद भी अस्पताल का खुद का भवन नहीं बन सका। पुराने सीएचसी बिल्डिंग को जोड़-तोड़ कर अस्थायी अस्पताल चलाया जा रहा है।

आईसीयू, सोनोग्राफी, गायनेकोलॉजिस्ट, एनेस्थीसिया जैसी बुनियादी सुविधाएँ अब तक नदारद हैं। फायर सेफ्टी मानकों का पालन तक नहीं किया गया है। गंभीर मरीजों को रायपुर या धमतरी रेफर कर दिया जाता है।

नए भवन का निर्माण एजीएमएसी के अधीन है, लेकिन ठेका कंपनी के राजनीतिक संरक्षण ने काम की रफ्तार को कछुए की चाल में बदल दिया है। सरकारी धन खर्च हो रहा है, मगर जनता अब भी लाइन में इंतज़ार कर रही है — इलाज के लिए नहीं, रेफर के लिए।

आधी-अधूरी न्याय व्यवस्था

14 साल पुराने जिले में अब तक पूर्ण जिला न्यायालय नहीं बन सका। आज भी सिविल कोर्ट के सहारे न्यायिक कामकाज चल रहा है। श्रम, विद्युत, भ्रष्टाचार अधिनियम, परिवार, महिला उत्पीड़न, एससी-एसटी और एनडीपीएस जैसे गंभीर मामलों की सुनवाई रायपुर में होती है। इससे गरीब और ग्रामीण पक्षकारों को भारी खर्च उठाना पड़ता है।

न्याय की पहुँच आम नागरिकों तक नहीं, बल्कि जिला मुख्यालय की सीमाओं में भी अधूरी पड़ी है। यह तस्वीर बताती है कि यहाँ “न्याय अब भी फाइलों में बंद है।”

बस स्टैंड नहीं, पार्क नहीं; ‘ऑक्सीजन जोन’ में भ्रष्टाचार की हवा

जिला मुख्यालय में न तो व्यवस्थित बस स्टैंड है, न ही कोई ढंग का गार्डन। साईं मंदिर परिसर को छोड़कर एक भी सार्वजनिक उद्यान विकसित नहीं किया गया। वन विभाग ने ऑक्सीजन जोन के नाम पर 50 लाख से अधिक खर्च कर डाले, लेकिन परियोजना अधूरी रह गई।

भारी खर्च के बावजूद ऑक्सीजन जोन के गेट पर ताला लटका रहता है। भ्रष्टाचार की सड़ी हवा ने वहां की ताजगी को निगल लिया है। आज भी लोग सैर-सपाटा करने राष्ट्रीय राजमार्ग का सहारा लेते हैं — क्योंकि शहर में सांस लेने की जगह नहीं बची।

डायवर्शन पर रोक – निजी विकास पर ताला

मुख्यालय में नगर निवेश का दफ्तर तक नहीं बना है। ज़मीन के डायवर्शन पर रोक लगने से निजी विकास ठप है। जिन्होंने ज़मीन खरीदी, वे न मॉर्गेज कर पा रहे हैं, न लोन। वैधानिक प्लॉटिंग ठप है, अवैध प्लॉटिंग फल-फूल रही है, जिससे शासन को राजस्व हानि हो रही है।

मध्यम वर्गीय परिवारों के सपनों का मकान अब ‘कानूनी फंसावट’ का हिस्सा बन गया है। सरकार की नीतियाँ इतनी उलझी हैं कि जमीन मालिक अब खुद को ज़मीन से बेगाना महसूस कर रहे हैं।

कलेक्टर का घर अधूरा, अधिकारी बने किराएदार

14 साल में 13 कलेक्टर आए, लेकिन कोई भी अपने सरकारी आवास की मंजूरी नहीं दिला सका। अधिकारी अब भी किराए के मकानों में रह रहे हैं। हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी और ट्रांजिट हॉस्टल संख्या में नाकाफी हैं। 30 से 40 अधिकारी और कर्मचारी आज भी किराए पर रहकर प्रशासन चला रहे हैं। कुछ तो रोज़ रायपुर से आवाजाही करते हैं — यह किसी जिले के प्रशासन की नहीं, प्रशासन की बेबसी की तस्वीर है।

14 साल का यह जिला अब भी बुनियादी जरूरतों की जद्दोजहद में है। स्वास्थ्य अधूरा, न्याय अधूरा, अवसंरचना अधूरी और प्रशासन बेबस — ऐसे में जब उत्सव की रोशनी बिखेरेगी, तो गरियाबंद की हकीकत पर वह सिर्फ एक पर्दा डालेगी। प्रश्न यह नहीं कि उत्सव कैसे मनेगा, प्रश्न यह है कि – क्या वाकई जश्न का कोई कारण बचा है?

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