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गोलियों की बौछारों से थर्रायी मटाल की पहाड़ियां: ‘वॉयस सैंपल’ ने लिखा नक्सल खात्मे का आखिरी लाल पन्ना, 16 घंटे में बिछी 10 लाशें, पढ़िए नक्सलियों की कब्र खोदने की इनसाइड स्टोरी

गिरीश जगत की रिपोर्ट। गरियाबंद। पढ़िए जंगल से ग्राउंड रिपोर्टर की सीक्रेट डायरी…..

11 सितंबर 2025…छत्तीसगढ़ का गरियाबंद जिला, भालूडिग्गी और राजाडेरा मटाल की पहाड़ियां। सघन जंगल में पसरा सन्नाटा अचानक गोलियों की गूंज से कांप उठा। पेड़ों की टहनियां टूटने लगीं, धुआं और मिट्टी हवा में घुल गए। जंगल की पगडंडियां रणभूमि में बदल चुकी थीं। जंगल की पगडंडियों पर बिखरी लाशें, सीने और कंधों में धंसी गोलियां,पत्तों पर टपकता खून…मटाल की घाटी ने वह खौफनाक नज़ारा देखा, जिसे शब्द भी बयान करने से कांप जाएं। 16 घंटे तक चली इस जंग में 10 नक्सली बुलेटों की बारिश में ऐसे गिरे जैसे पत्ते आंधी में टूटकर गिरते हैं। इसी जंग में खतरनाक नक्सल लीडर्स का खात्मा हो गया।


ऑपरेशन की शुरुआत: खुफिया सूचना से लेकर रणनीति तक

सब कुछ 10 सितंबर की दोपहर से शुरू हुआ। एजेंसियों को खबर मिली कि ओडिशा स्टेट कमेटी के शीर्ष लीडर मनोज, प्रमोद और विमल समेत 15-20 नक्सली बॉर्डर बेल्ट में छिपे हैं। सूचना सामान्य नहीं थी—एडवांस तकनीक से ट्रेस की गई आवाज़ें इसकी पुष्टि कर रही थीं। जांच में सैंपल की पहचान हुई—मनोज, जिस पर 1.80 करोड़ का इनाम था। यह वही नाम था जो ओडिशा स्टेट कमेटी को जिंदा रखे हुए था।

गरियाबंद एसपी निखिल राखेचा ने तत्काल वरिष्ठ अधिकारियों से मशविरा किया। रणनीति साफ थी—नुकसान शून्य, वार निर्णायक। और फिर फोर्स तैनात हुई: STF, CAF, E-30 और COBRA-207 बटालियन। जवान ऑपरेशन के लिए जिला मुख्यालय से निकल चुके थे। जंगल में एंट्री हो गई थी।


16 घंटे की मुठभेड़: जब पहाड़ियां दहक उठीं

11 सितंबर की शाम चार बजे…जंगल में घात लगाकर बैठे नक्सलियों ने अचानक गोलियां बरसानी शुरू कीं। AK-47, SLR, इंसास राइफल—हर दिशा से दहाड़ उठी। जवानों ने तुरंत मोर्चा संभाला। रात भर फायरिंग चली—गोलियों की चमक, बारूद की गंध और पहाड़ियों की गूंज…जंगल मानो जंग का गवाह बन गया था। सुबह की धुंध छंटते-छंटते नतीजा सामने था—10 नक्सली मारे जा चुके थे।


कौन-कौन ढेर हुए?

इस एनकाउंटर में मारे गए चेहरे साधारण नहीं थे। ये वही थे जिनकी तलाश वर्षों से की जा रही थी।

  • मनोज उर्फ बालकृष्ण – ओडिशा स्टेट कमेटी सदस्य, 6 राज्यों का नेटवर्क, ₹1.80 करोड़ इनाम
  • प्रमोद – ओडिशा कैडर लीडर, ₹1.20 करोड़ इनाम
  • विमल – टेक्निकल टीम का मास्टर, हथियार और रेडियो बनाने का विशेषज्ञ, ₹80 लाख इनाम
  • अन्य 7 नक्सली – ओडिशा और छत्तीसगढ़ बॉर्डर पर सक्रिय, स्थानीय दहशत फैलाने वाले।
  • सिर्फ इस ऑपरेशन में मारे गए नक्सलियों पर कुल ₹5.22 करोड़ का इनाम था।

ओडिशा कैडर की रीढ़ टूटी

इस मुठभेड़ ने ओडिशा स्टेट कमेटी की धज्जियां उड़ा दीं।

  • 3 CC मेंबर में से अब सिर्फ गणेश उईके जीवित बचा है।
  • छलपती और मनोज ढेर हो चुके हैं।
  • 7 स्टेट कमेटी नामों में से 4 (प्रमोद, कार्तिक, जयराम और विमल) मारे जा चुके हैं।
  • ZM कमेटी के 2 में से 1 सत्यम गावड़े भी खत्म।
  • यानी, ओडिशा कैडर अब नाम मात्र का रह गया है।

8 महीने की तस्वीर: कब, कितना नुकसान?

  • 8 महीनों में 28 नक्सली एनकाउंटर में ढेर
  • 21 नक्सली आत्मसमर्पण कर चुके।
  • ओडिशा में संगठन खड़ा करने वाले 12 संस्थापकों में से 7 मारे जा चुके।
  • विशेषज्ञ मानते हैं, बॉर्डर बेल्ट में नक्सलियों का 70% सफाया हो चुका है।

खुफिया एजेंसी की भूमिका: आवाज से पकड़ तक

मनोज पिछले चार महीनों से ज्यादा सक्रिय था। एजेंसियों ने उसकी गतिविधियों को ट्रैक किया। सबसे बड़ा ब्रेकथ्रू तब मिला जब उसकी आवाज़ ट्रेस हुई। सैंपल टेस्ट में यह मनोज की आवाज साबित हुई। फिर उसकी लोकेशन सटीक निकाली गई। यानी, इस एनकाउंटर की नींव टेक्नोलॉजी और धैर्य से बुनी गई जाल थी।


जंगल से बाहर: अब गांवों में कैसी चर्चा?

ग्राउंड जीरो पर हमारी टीम जब पहुंची, तो गांव सन्नाटे में डूबा था। लोग धीरे-धीरे बाहर निकलकर चर्चा कर रहे थे। कहीं राहत थी, कहीं डर कि “अब बचा हुआ नक्सली क्या करेगा?” मृतक नक्सलियों के नाम सुनते ही ग्रामीणों ने कहा—“ये वही थे जो गांव-गांव जाकर वसूली करते, बच्चों को संगठन में घसीटते। अब इनका अंत हुआ है तो हम खुलकर सांस ले पा रहे हैं।”


जंगल की पहाड़ियों ने लाल आतंक को दफना दिया

गरियाबंद की यह मुठभेड़ महज एक सैन्य सफलता नहीं थी। यह तीन दशकों से लाल आतंक फैलाने वाले संगठन की रीढ़ तोड़ने वाली जंग थी। मनोज, प्रमोद और विमल के मारे जाने के साथ ही ओडिशा स्टेट कमेटी लगभग खत्म हो चुकी है। जंगल की पहाड़ियों ने उस रात सिर्फ गोलियों की गूंज नहीं सुनी, बल्कि लाल आतंक का पतन भी देखा।

8 माह में लाल किले का पतन

यह कोई पहली जीत नहीं थी। पिछले आठ महीनों में गरियाबंद पुलिस ने लगातार ओडिशा कैडर को तोड़ दिया। पहले चलपती ढेर हुआ, अब मनोज और प्रमोद की मौत ने पूरे नेटवर्क की रीढ़ तोड़ दी। सात बड़े चेहरे खत्म हो चुके हैं, जिनमें कार्तिक, जयराम और अब विमल का नाम भी जुड़ गया।

ओडिशा स्टेट कमेटी के तीन सीसी मेंबर में अब केवल गणेश उईके जिंदा है, लेकिन उसके दोनों हाथ—चलपती और मनोज—अब मिट्टी में मिल गए हैं। यह वही ज़मीन है, जहां कभी नक्सली राज करते थे। आज तस्वीर बदल गई है—70% से ज्यादा नेटवर्क ध्वस्त और दर्जनों ने हथियार डाल दिए हैं।

खून, बुलेट और रणनीति का संगम

इस जीत के पीछे सिर्फ गोलियां नहीं, बल्कि दिमाग भी चला। महीनों से खुफिया एजेंसियाँ मनोज की हलचल पर नजर रख रही थीं। उसकी आवाज़ को ट्रेस कर तकनीकी टेस्ट किया गया, जिससे लोकेशन की पुष्टि हुई। सूचना पक्की थी—कम से कम 15 से 20 नक्सली होंगे। गरियाबंद के एसपी निखिल राखेचा ने अपने जवानों के साथ जो योजना बनाई, वह इतनी कारगर साबित हुई कि एक भी जवान को नुकसान नहीं हुआ, लेकिन जंगल में लाल लाशों का अंबार लग गया।

12 में से 7 नक्सल लीडर्स का खात्मा

सूत्रों के मुताबिक, ओडिशा में नक्सली दल खड़ा करने वाले 12 में से 7 सदस्य अब तक मारे जा चुके हैं।पिछले 8 माह में ही 28 नक्सली एनकाउंटर में मारे गए और 21 ने आत्मसमर्पण किया है। इससे एजेंसियां मान रही हैं कि बॉर्डर पर नक्सलियों का 70 फीसदी उन्मूलन हो चुका है।

बालकृष्ण: तीन दशक का खूनी सफर

बालकृष्ण का नाम नक्सली इतिहास का सबसे बड़ा किरदार बन चुका था। तेलंगाना के वारंगल में जन्मा यह शख्स 1980 के दशक में नक्सल आंदोलन से जुड़ा।

  • 1983 – क्रांतिकारी छात्र संघ से प्रभावित होकर जंगल का रास्ता चुना।
  • 1984 – पहली गिरफ्तारी, 2 साल वारंगल जेल में रहा।
  • 1990 – आंध्र प्रदेश के विधायक वेंकटेश्वर राव के अपहरण के बाद सरकार को उसकी रिहाई करनी पड़ी।
  • 1999 – जमानत पर छूटने के बाद गायब हो गया।
  • इसके बाद उसने ओडिशा स्टेट कमेटी की कमान संभाली।

खूनी वारदातों का मास्टरमाइंड

बालकृष्ण सिर्फ संगठन चलाने वाला नेता नहीं था, वह बड़े हमलों का योजनाकार था।

  • 2008 नयागढ़ हमला – 13 पुलिसकर्मी मारे गए, थानों से हथियार लूटे।
  • 2008 बालिमेला हमला – 37 ग्रेहाउंड कमांडो शहीद।
  • 2009 नाल्को हमला – 11 CISF जवान मारे गए।
  • ये हमले उसे नक्सली संगठन का “जनरल” बना चुके थे।

कैसे ट्रैक हुआ बालकृष्ण?

पिछले चार महीने से बालकृष्ण की गतिविधियां बढ़ गई थीं। एजेंसियों ने उसकी आवाज़ ट्रेस की। वॉयस सैंपल की जांच में पुष्टि हुई—वह यहीं छिपा है। सूचना इतनी सटीक थी कि पुलिस अधीक्षक निखिल राखेचा ने वरिष्ठ अधिकारियों के मार्गदर्शन में रणनीति बनाई। नतीजा—बिना जवानों की बड़ी हानि के नक्सली नेटवर्क को धराशायी कर दिया गया।

डायरी का आख़िरी पन्ना: लाल आतंक की विदाई

उस दिन मुठभेड़ के बाद घटनास्थल पर धुआं भी हवा में घुला हुआ था। ज़मीन पर ताज़ा खून की गंध थी, और चारों ओर खामोशी का बोझ। कहीं-कहीं परे पड़ी लाशों पर सूरज की किरणें पड़ रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे यह जंगल खुद गवाही दे रहा हो—कि यहां कभी लाल आतंक राज करता था, लेकिन अब उसका पतन लिखा जा चुका है।

नक्सली नेता मॉडेम बालकृष्ण की पूरी कहानी

लाल आतंक का वो खूनी चेहरा, जिसकी गोलियों से थर्राते रहे जंगल

तेलंगाना के वारंगल में जन्मा मॉडेम बालकृष्ण—उर्फ मनोज, बलन्ना, रामचंदर और भास्कर—लाल गलियारों का वो नाम था, जिसने तीन दशकों तक गोलियों, बम और खूनी रणनीतियों से राज्य की सीमाओं को दहला दिया।

शिक्षा से लेकर बंदूक तक का सफर

1981 से 1983 तक हैदराबाद के मलकपेट जूनियर कॉलेज का साधारण छात्र बालकृष्ण, देखते ही देखते नक्सल संगठन के सबसे बड़े कमांडरों में शामिल हो गया। क्रांतिकारी छात्र संघ के दर्शन ने उसकी सोच को बदल दिया और साल 1983 में वह बंदूक थामे भद्राचलम के जंगलों में दाखिल हो गया।

पहली गिरफ्तारी और जेल की सलाखें

1984 में पुलिस ने उसे पहली बार पकड़ा। 1986 तक वारंगल जेल की सलाखों में रहा। रिहाई के बाद वह फिर संगठन से जुड़ा और हैदराबाद से लेकर महबूबनगर तक सरकार विरोधी गतिविधियां चलाता रहा।

अपहरण और सौदेबाज़ी: विधायक के बदले मिली आज़ादी

1987 में दोबारा गिरफ्तार हुआ। लेकिन जनवरी 1990 में तेलुगु देशम पार्टी (TDP) के विधायक वेंकटेश्वर राव के अपहरण के बदले उसे रिहा कर दिया गया। यह घटना नक्सलियों की चालाकी और सरकार की मजबूरी का जीता-जागता सबूत बनी।

तेलंगाना से ओडिशा तक लाल रास्ता

1991 में वह महबूबनगर का जिला कमांडर बना। जल्द ही दक्षिण तेलंगाना क्षेत्र समिति का अध्यक्ष नियुक्त हुआ। 1993 में कुरनूल में पकड़ा गया, लेकिन 1999 में ज़मानत पर रिहा होकर फिर से अंडरग्राउंड हो गया। इसके बाद उसने ओडिशा स्टेट कमेटी का सचिव बनकर लाल आतंक की कमान संभाली।

नयागढ़ का खूनी हमला – 2008

15 फरवरी 2008 की रात ओडिशा के नयागढ़ शहर में बालकृष्ण के नेतृत्व में नक्सलियों ने भीषण हमला बोला।

  • 13 पुलिसकर्मी समेत 14 लोगों की मौत
  • पुलिस थाने और शस्त्रागार पर कब्ज़ा
  • हथगोले, पेट्रोल बम और गोलीबारी से शहर दहल उठा
  • भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद लूट लिए गए

यह हमला ओडिशा के इतिहास का सबसे बड़ा नक्सली हमला माना गया।

ग्रेहाउंड्स पर जल-घात: बालीमेला 2008

सिर्फ चार महीने बाद, 29 जून 2008—बालकृष्ण ने एक और सनसनीखेज हमला किया।
बालीमेला जलाशय पर नाव से लौट रहे आंध्र प्रदेश पुलिस के ग्रेहाउंड कमांडो पर घात लगाकर हमला किया गया।

  • 37 कमांडो नदी में लहूलुहान होकर डूब गए।
  • यह भारत में जलमार्गों पर पहली बार हुआ इतना बड़ा नक्सली हमला था।

संगठन में ऊंचा कद, खौफनाक छवि

लगातार सफल हमलों के बाद वह ओडिशा स्टेट कमेटी का सबसे ताक़तवर सचिव बना। इसके साथ ही वह आंध्र-ओडिशा बॉर्डर स्पेशल ज़ोनल कमेटी (AOBSZC) में भी सक्रिय रहा, जिसने 2000 के दशक में कई बड़े खूनी हमले किए।

बालकृष्ण का लाल सफर – खून, गोलियां और जंगल

तीन दशक तक मॉडेम बालकृष्ण ने जंगलों में खून बहाया। कभी गोलियों से लाशें बिछीं, कभी बमों से पहाड़ियां थर्राईं। वारंगल का यह छात्र नक्सली आंदोलन का ऐसा चेहरा बन गया, जिसे देखते ही सुरक्षा एजेंसियों की नींद उड़ जाती थी।

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