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रेड कॉरिडोर के खात्मे की सीक्रेट स्टोरी: बाइक पर बैठकर निकले नक्सली, संपादक ने थामी संवाद की डोर, हथियारों से थे लैस, पढ़िए जंगल टू सरेंडर की लाल डायरी

ढलती शाम का समय था। गरियाबंद के जंगलों में हवा ठहरी हुई-सी लग रही थी। पहाड़ियों के पीछे सूरज की आख़िरी किरणें पत्तों पर झिलमिला रही थीं। तभी जंगल की उस निस्तब्धता को तोड़ती एक बाइक की आवाज़ गूंजती है। बाइक पर पीछे बैठा था वो व्यक्ति, जिसे पुलिस वर्षों से ढूंढ रही थी — उदंती एरिया कमांडर सुनील। और आगे बाइक संभाल रहे थे — MPCG टाइम्स के संपादक पुरुषोत्तम पात्रा

यह दृश्य किसी फिल्म जैसा लग सकता है, लेकिन यह हकीकत है — एक ऐसे ऐतिहासिक आत्मसमर्पण की, जिसने छत्तीसगढ़ के नक्सल नक्शे में निर्णायक मोड़ ला दिया।


जंगल की खामोशी में शुरू हुई एक बातचीत

उस दिन गरियाबंद के सुदूर उदंती जंगल में मीडिया की एक छोटी टीम निकली थी।
सीनियर रिपोर्टर गिरीश जगत और संपादक पुरुषोत्तम पात्रा — दोनों को सूचना मिली थी कि
कुछ नक्सली आत्मसमर्पण की इच्छा रखते हैं, लेकिन वे पुलिस से नहीं, मीडिया के ज़रिए बात करना चाहते हैं।

घंटों की पैदल यात्रा, कांटों से भरे रास्ते और तनाव से भरे माहौल के बीच जब वे नक्सलियों तक पहुंचे,
तो सामने बैठे थे हथियारों से लैस सात चेहरे — कमांडर सुनील, सचिव एरिना, लुद्रो, विद्या, नंदिनी, मलेश और कांती।
सातों के कंधों पर बंदूकें थीं, पर चेहरों पर थकान और भय का अजीब-सा मिश्रण।

“हम अब थक चुके हैं… रूपेश दादा ने कहा था कि अगर दिल बदल गया है, तो घर लौट जाओ,”
विद्या के शब्दों में दर्द था, लेकिन सुकून भी।


37 लाख के इनामी, पर अब शांति की राह पर

इन सातों पर कुल ₹37 लाख का इनाम था।
कमांडर सुनील और सचिव एरिना पर 8-8 लाख रुपये,
बाकियों पर 5-5 लाख और कांती पर 1 लाख का इनाम घोषित था।

वे जंगल छोड़ आए, लेकिन साथ लेकर आए एक SLR, तीन INSAS और एक सिंगल शॉट बंदूक।
यह सिर्फ आत्मसमर्पण नहीं था — यह हिंसा से इंसानियत की ओर लौटने की यात्रा थी।


मीडिया बना भरोसे की डोर

जब उन्होंने संपादक पुरुषोत्तम पात्रा और रिपोर्टर गिरीश जगत से संपर्क किया,
तो एक ही शर्त रखी — “हम आत्मसमर्पण करेंगे, लेकिन पहले अपनी बात जनता तक पहुंचाना चाहते हैं।”

इस बातचीत ने मीडिया की भूमिका को एक नए आयाम पर खड़ा कर दिया।
रात के सन्नाटे में रिपोर्टर गिरीश जगत ने मोबाइल सिग्नल ढूंढते हुए
नक्सली लुद्रो की बात सीधे एसपी निखिल राखेचा से कराई।

एसपी ने उन्हें सुरक्षित सरेंडर का भरोसा दिया।
और यही वो पल था, जब मीडिया, पुलिस और नक्सलियों के बीच की दीवार टूट गई।


बाइक पर निकले कमांडर सुनील

सुरक्षा और भरोसे के प्रतीक के रूप में,
कमांडर सुनील ने खुद आग्रह किया —

“संपादक साहब, मैं आप लोगों के साथ बाइक पर चलूंगा, ताकि मेरे साथियों को यकीन हो जाए कि अब कोई धोखा नहीं।”

और फिर वो नज़ारा बना इतिहास —
जंगल से निकलती एक बाइक, जिस पर आगे बैठे थे पत्रकार,
और पीछे — आठ लाख के इनामी नक्सली कमांडर सुनील,
जिसने पहली बार बंदूक नहीं, भरोसे को थामा था।


धूल उड़ती सड़कों पर आत्मसमर्पण की डगर

बाइक जैसे ही जंगल से मेन रोड पर उतरी,
तो उनके पीछे बाकी छह नक्सली भी पैदल चलते हुए आए।
गरियाबंद के बाहरी इलाके में पहुंचते ही पुलिस की टीम पहले से तैयार थी।

पत्रकारों की मध्यस्थता में सभी ने अपने हथियार रख दिए —
वो SLR, वो इंसास राइफलें, जो कभी सुरक्षा बलों पर बरसती थीं,
आज ज़मीन पर शांत पड़ी थीं।

उस पल जंगल के ऊपर से उड़ते पक्षियों की आवाज़ भी मानो किसी आज़ादी का गीत गा रही थी।


नक्सल कमांडर ने कहा – “अब हम घर लौटना चाहते हैं”

समर्पण के बाद जब मीडिया ने सवाल पूछा कि अब क्या योजना है,
तो कमेटी सदस्य विद्या ने बड़ी सहजता से कहा —

“हम अब घर जाना चाहते हैं। हम DRG में भर्ती नहीं होना चाहते,
बस अब अपने बच्चों के साथ रहना चाहते हैं।”

यह जवाब न सिर्फ एक बयान था,
बल्कि नक्सल विचारधारा के भीतर पनपी मानवीय थकान का प्रतीक भी।


गरियाबंद से नक्सलवाद के सफाए की ओर

यह आत्मसमर्पण किसी व्यक्तिगत घटना से कहीं बड़ा था।
इसके साथ ही धमतरी-गरियाबंद-नुआपाड़ा (DGN) डिवीजन की उदंती एरिया कमेटी का अंत तय हो गया।

इस क्षेत्र में पिछले एक साल में ही
37 नक्सलियों ने सरेंडर किया, जबकि 28 एनकाउंटर में ढेर हुए।
अब बचे हुए 20-25 नक्सली सोनाबेड़ा और गोबरा एरिया कमेटी में सक्रिय बताए जा रहे हैं।

पुलिस सूत्र बताते हैं कि सुनील ने समर्पण से पहले अंजू, बलदेव और ज्योति से संपर्क करने की कोशिश की थी,
ताकि वे भी हथियार डाल दें। लेकिन नेटवर्क की कमी के कारण बात नहीं हो सकी।
आखिरकार उसने फैसला किया — “अब देर नहीं, अब लौट चलें।”


क्यों खास है यह सरेंडर

छत्तीसगढ़ में बीते वर्षों में कई नक्सली आत्मसमर्पण हुए,
पर यह केस अलग था —
क्योंकि यह “मीडिया-नेतृत्व वाला आत्मसमर्पण” था।

जहां पत्रकारों ने सिर्फ खबर नहीं लिखी,
बल्कि संवाद की चिंगारी को आग में बदलने से बचाया।

पुरुषोत्तम पात्रा ने बाद में बताया —

“हमारे लिए यह किसी स्कूप से बढ़कर था। यह उन ज़िंदगियों की वापसी थी
जिन्हें बंदूक ने निगल लिया था। जब सुनील बाइक से उतरा,
तो उसकी आंखों में पहली बार डर नहीं, सुकून था।”


रूपेश दादा की अपील और बदलता मनोबल

नक्सली विद्या और लुद्रो ने बताया कि बस्तर में सरेंडर कर चुके
सेंट्रल कमेटी मेंबर रूपेश दादा की अपील ने उन्हें सोचने पर मजबूर किया।
रूपेश ने अपने बयान में कहा था —

“अब जंगलों में सिर्फ खून बचा है, क्रांति नहीं।”

शायद यही वाक्य उन सात ज़िंदगियों के अंदर कहीं उतर गया था।


“रेड कॉरिडोर” का अंत, “ग्रीन शांति” की शुरुआत

गरियाबंद से लेकर नुआपाड़ा तक का इलाका
कभी नक्सलियों के “रेड कॉरिडोर” के नाम से कुख्यात था।
आज वही जंगल शांति की हरी पत्तियों से ढक रहा है।

पुलिस, मीडिया और समाज के साझा प्रयासों ने
एक ऐसा रास्ता खोला है, जहां गोलियों की जगह संवाद चल सकता है।


रिपोर्टर की डायरी से…

सीनियर रिपोर्टर गिरीश जगत अपनी नोटबुक में लिखते हैं –

“उस शाम जब सुनील ने मुझसे कहा — ‘भैया, अब हम लोग खत्म हो गए… बस जीना है,’
तो मेरे भीतर पत्रकार नहीं, इंसान जागा।
और जब मैंने उसकी राइफल को नीचे रखते देखा,
तो लगा जैसे किसी ने जंगल से एक अभिशाप हटा लिया हो।”


बंदूकें अब खामोश हैं, भरोसा ज़िंदा है

यह सिर्फ सात नक्सलियों का आत्मसमर्पण नहीं था,
यह “संवाद की ताकत” का पुनर्जन्म था।

संपादक पुरुषोत्तम पात्रा और रिपोर्टर गिरीश जगत की साहसिक पहल ने
न सिर्फ नक्सली हिंसा के एक अध्याय को समाप्त किया,
बल्कि यह भी साबित किया कि कलम जब संवाद की भाषा बोलती है,
तो बंदूकें भी खामोश हो जाती हैं।


आज गरियाबंद के जंगलों में फिर से पंछी गा रहे हैं।
वो रास्ते, जो कभी खून से रंगे थे, अब उम्मीद से भरे हैं।
क्योंकि किसी ने हथियार नहीं, भरोसा थाम लिया है।

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