
गरियाबंद से रिपोर्ट | गिरीश जगत की
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद ज़िला मुख्यालय के गांधी चौक पर आज का सूरज जैसे कुछ ज़्यादा तप रहा था, लेकिन उस तपिश से कहीं ज़्यादा जलन उस 80 वर्षीय बुजुर्ग की आंखों में थी, जो तख़्त पर बैठा था—बिना अन्न, बिना पानी, बस एक उम्मीद लिए कि शायद न्याय अब भी इस धरती पर जिंदा है।
उनका नाम है अहमद बेग। उम्र भले ही अस्सी के पार हो गई हो, लेकिन चेहरे पर अब भी संघर्ष का वही तेज़। शरीर से थक चुके हैं, लेकिन आत्मा अब भी जिद पर अड़ी है—“अब अन्न और पानी वहीं लूंगा, जहां से बेदखल किया गया, अपने घर में।”

“बेटे ने पिता को बेघर कर दिया…”
यह सुनने में जितना कठोर लगता है, ज़िंदगी में उससे कहीं ज़्यादा क्रूर है। मैनपुर से करीब 45 किलोमीटर दूर चलकर आए अहमद बेग ने मीडिया को बताया—
“ये वही घर है जिसे मैंने अपनी मेहनत से बनाया था। 25 डिसमिल ज़मीन पर छत खड़ी की थी, ताकि बच्चे सुकून से रहें। लेकिन मेरा बड़ा बेटा साजिद… उसने बंटवारे से पहले ही कब्जा कर लिया। मुझे घर से निकाल दिया।”
बेग साहब की आवाज़ कांप रही थी, लेकिन शब्दों में कोई झिझक नहीं थी। साथ में उनकी बड़ी बेटी, छोटा बेटा और बहू भी मौजूद थे—अपने पिता को न्याय दिलाने की जिद में उनके साथ धरने पर बैठे।

“एक पिता की भूख नहीं, बेबसी भूख हड़ताल पर बैठी है…”
सुबह 9 बजे से धरना स्थल पर बैठे अहमद बेग ने शाम 5 बजे तक पानी तक नहीं पिया। बढ़ती उम्र के कारण उनकी तबीयत बिगड़ने लगी, लेकिन जिद कम नहीं हुई।
“मैं वापस तब ही जाऊंगा, जब मेरा हक़ मुझे मिल जाएगा। बेटा है, लेकिन व्यवहार अजनबी से भी बदतर है,” उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा।
“प्रशासन पहुंचा, मगर भरोसे की डोर कमजोर है…”
धरना स्थल पर मैनपुर तहसीलदार रमेश मेहता और गरियाबंद तहसीलदार चितेश देवांगन की अगुवाई में राजस्व टीम पहुंची।
तहसीलदार मेहता ने बताया,
“हमने पहले भी कब्जा दिलाया था। लेकिन जैसे ही बुजुर्ग धार्मिक कार्य से बाहर गए, बेटा फिर से कब्जा कर बैठा। अब प्रशासन उन्हें दोबारा कब्जा दिलाने की कार्रवाई कर रहा है।”
प्रशासन की कार्रवाई का भरोसा दिलाया गया, लेकिन अहमद बेग का जवाब साफ था—
“जमीन पर कब्जा दिखेगा, तब ही धरना खत्म होगा।”
“धरती का बोझ उठाया, लेकिन बेटे का नहीं सह पाए…”
यह कोई मामूली पारिवारिक विवाद नहीं है। यह उस सामाजिक दरार की कहानी है जो पीढ़ियों के बीच संवाद की कमी, स्वार्थ और अधिकार की लालसा ने पैदा कर दी है। अहमद बेग जैसे बुजुर्ग जब अपने ही घर में पराए बना दिए जाते हैं, तब समाज को आईना देखने की ज़रूरत है।
“एक बेटी की चुप्पी, एक बेटे की आंखें भीगी थीं…”
धरना स्थल पर बैठे अहमद बेग की बेटी ने बस इतना कहा,
“पिता हैं वो हमारे। अगर न्याय न मिला, तो हम भी इस ज़मीन पर भूखे ही बैठेंगे।”
छोटा बेटा कुछ नहीं बोला, लेकिन उसकी नम आंखों ने बहुत कुछ कह दिया।

क्या सिर्फ कब्जा दिलाना काफी है?
प्रशासन कहता है—”कब्जा दिला देंगे”, लेकिन क्या टूटे रिश्ते को भी जोड़ा जा सकता है?
क्या साजिद को अब भी ‘बेटा’ कहा जा सकता है जिसने पिता को इस उम्र में सड़क पर ला बैठाया?
गरियाबंद के गांधी चौक में बैठा यह एक बुजुर्ग सिर्फ अपने घर का हक़ नहीं मांग रहा है, बल्कि पूरे समाज को यह सवाल सौंप रहा है— “अगर बेटे ऐसे निकलते हैं, तो पिता को अपना आखिरी आसरा कहां बनाना चाहिए?”

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