
गिरीश जगत की रिपोर्ट | गरियाबंद, छत्तीसगढ़
रात थी। अंधेरा घना था। और बीच जंगल में एक एंबुलेंस कीचड़ में धंसी खड़ी थी — उसके भीतर बैठीं थीं पांच ज़िंदगियां, जो मलेरिया की तपिश में तड़प रही थीं। यह कोई आपातकालीन फिल्म का दृश्य नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले की आमामोरा पंचायत की सच्चाई है — एक ऐसी सच्चाई जो ‘टाइगर रिज़र्व’, ‘एनओसी’ और ‘प्रोजेक्ट क्लियरेंस’ जैसे सरकारी जुमलों के नीचे दब चुकी है।
शनिवार की रात कमार जनजाति के पांच मलेरिया पीड़ित — एक छह साल की बच्ची, दो किशोर, और दो अधेड़ — उस अधूरी सड़क पर अपनी जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे थे, जहां पंद्रह साल से सड़क बन ही नहीं पाई। कारण? कभी नक्सली हमला, कभी टाइगर रिजर्व का नियम, कभी सरकारी ठेकेदार की बेरुखी और कभी काग़ज़ों में उलझी मंज़ूरी।

बच्चों की कराह, और कीचड़ में धंसी एंबुलेंस
कुकरार के सीएचओ दुर्गेश पुरैना जब गांव में नियमित स्वास्थ्य दौरे पर थे, तभी उन्हें कमार जनजाति के पवित्रा (6), रूपेश (13), धान बाई (50), शुक्रुरम (54), और प्रमिला बाई (34) मलेरिया से पीड़ित मिले। स्लाइड टेस्ट में मलेरिया कन्फर्म होते ही उन्हें तत्काल अस्पताल ले जाने की प्रक्रिया शुरू हुई।

शाम 6 बजे कॉल की गई एंबुलेंस डेढ़ घंटे बाद पहुंची। पर इलाज की राह इतनी आसान नहीं थी। हथौड़ा डीह के पास सड़क कीचड़ में तब्दील थी। एंबुलेंस वहीं धंसी और दो घंटे तक कोई हलचल नहीं हुई। ट्रैक्टर बुलवाया गया, और जैसे-तैसे कीचड़ से बाहर निकाला गया — तब तक मरीजों की हालत और बिगड़ चुकी थी।
सवाल यह है कि जब मलेरिया जैसी गंभीर बीमारी के लिए समय पर अस्पताल नहीं पहुंचा जा सकता, तो क्या टाइगर के लिए जंगल सुरक्षित रखना ज़्यादा ज़रूरी है, या इंसानों को ज़िंदा रखना?

15 साल में नहीं बनी 30 किलोमीटर की सड़क, किसका है ये पाप?
यह वही सड़क है जो आमामोरा को ओड़ से जोड़ती है। 2008 में इसकी योजना बनी, 2011 में नक्सली हमले में 10 जवान मारे गए — काम ठप हुआ। फिर 2022 में रिवाइज्ड प्रोजेक्ट बना, खर्चा 10 करोड़ से बढ़कर 24 करोड़ हो गया।

2023 में 23वीं बार टेंडर निकला, काम शुरू भी हुआ… और फिर टाइगर रिजर्व की आपत्ति ने ब्रेक लगा दिया। अब पूरा निर्माण 17 हेक्टेयर जंगल क्षेत्र में फंसा हुआ है, और एनओसी क्लियरेंस के नाम पर 10 करोड़ का नया बोझ तैयार है।
पर गांव वाले पूछते हैं — “अगर 1500 ग्रामीणों की जान हर साल बारिश में कीचड़ और बीमारियों में उलझ जाती है, तो किसने तय किया कि बाघ की सुरक्षा मानव जीवन से ऊपर है?”

बगैर पुल के टापू बन जाता है गांव, फिर किस विकास की बात हो रही है?
आमामोरा के बाहर अधूरा पुल हर साल बारिश में मौत का न्योता देता है। न स्लैब बना, न रूट डायवर्ट हुआ।
बाढ़ आती है तो गांव टापू बन जाता है। कमार और भुजिया जनजाति के लोग रोज़ दोपहिया से उस कीचड़ को पार करते हैं — इलाज, स्कूल, राशन, बैंक हर ज़रूरत मौत के बराबर जोखिम बन चुकी है। क्या यह ‘विकास’ है?

जिन्हें जंगल के नाम पर रोका गया, वो खुद जंगल में मर रहे हैं
यह विडंबना नहीं, घिनौनी सच्चाई है कि जिस टाइगर रिजर्व के नाम पर सड़क रोकी गई, वहीं के ग्रामीण बुनियादी स्वास्थ्य सुविधा से वंचित हैं।
CHO दुर्गेश पुरैना कहते हैं: “बरसात में हर बार यही होता है। पुल अधूरा, सड़क कीचड़ में और मरीज की जान पर आफत।” अगर आज एंबुलेंस ट्रैक्टर से न निकलती, तो हो सकता है हम ‘पांच मलेरिया पीड़ितों की मौत’ की खबर लिख रहे होते।
काग़ज़ों की जंगल में फंसा ज़मीनी हक
फॉरेस्ट डिपार्टमेंट कहता है — 17 हेक्टेयर बफर ज़ोन में है, 44 बिंदुओं पर अनुमति लेनी होगी, 10 करोड़ खर्च होंगे।
पर सरकार से कोई नहीं पूछता कि इस प्रक्रिया के बीच जिन 1500 लोगों की ज़िंदगी अधर में लटकी है, उन्हें कौन जवाब देगा?
और सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि एनओसी के नाम पर जो 10 करोड़ अतिरिक्त खर्च होंगे, वो राशि इस सड़क प्रोजेक्ट में शामिल नहीं है। यानी फिर फाइलें, फिर टेंडर, फिर तारीखें, और फिर एक और पीढ़ी इस सड़क को ‘बस बनने वाला है’ सुनते हुए मर जाएगी।
“अब सड़क की लड़ाई नहीं छोड़ेंगे”: गांवों से उठ रही है आवाज़
जिला पंचायत सदस्य संजय नेताम अब खुलकर कहते हैं:
“अगर शासन ने रास्ता नहीं दिया तो हम सड़क रोकेंगे नहीं, झकझोरेंगे। 1500 लोग बरसात में बंदी हो जाते हैं, ये कैसा टाइगर प्रोजेक्ट है? इंसानों की कीमत कितनी कम हो गई है?”
टाइगर ज़रूरी हैं, लेकिन इंसान भी कम ज़रूरी नहीं ?
वन्य जीवों की सुरक्षा आवश्यक है — पर क्या यह उस स्तर पर जरूरी है कि कमार जनजाति के मासूम बच्चे मलेरिया से मरें और प्रशासन उन्हें ट्रैक्टर में खींचे?
क्या जंगल और कानून के बीच आम आदमी हमेशा कुचला जाएगा?
क्या विकास सिर्फ शहरी आंकड़ों की शान और आदिवासी गांवों की त्रासदी बनकर रह जाएगा?
गरियाबंद की यह सड़क अब सिर्फ एक निर्माण परियोजना नहीं, एक सामाजिक संघर्ष बन चुकी है। और इस बार शायद ट्रैक्टर नहीं, जनप्रतिरोध ही प्रशासन को खींचकर जवाबदेह बनाए।

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