
गरियाबंद से गिरीश जगत की रिपोर्ट
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद सीएमएचओ कार्यालय में महीनों से सुलग रही भ्रष्टाचार की आग ने आखिर फटकर लपटों का रूप ले लिया है। डीजल के नाम पर फर्जीवाड़ा कर सरकारी खजाने से 25 लाख उड़ा दिए गए। लूट मचाने वाले लिपिक विजेंद्र कुमार ध्रुव को कलेक्टर भगवानू उईके ने निलंबित कर दिया, लेकिन असल सवाल ये है कि “क्या सिर्फ लिपिक ही कसूरवार है या पूरा दफ्तर चुपचाप बंदरबांट में शामिल रहा?”

“अंदर की बात बाहर आई है, अब हर फाइल बोलेगी…”
सीएमएचओ कार्यालय, जहां कागज़ों पर इलाज और योजनाएं चलती रहीं, वहीं फील्ड में मरीज मरते रहे और दफ्तर के अफसर ‘खाता-खजाना’ खेलते रहे। सूमो गाड़ी CG 02 6140 को मानो डीजल की जगह भ्रष्टाचार का इंजन लगा दिया गया था। जय लक्ष्मी पेट्रोल पंप से महीनों तक फर्जी बिलों का खेल चलता रहा। सीएमएचओ की नाक के नीचे लिपिक फुल स्पीड में ‘गोलमाल’ करता रहा।

“काम का नहीं, कारनामे का कार्यालय बन गया था सीएमएचओ दफ्तर…”
इस डीजल कांड की जड़ें गहराई तक फैली हैं। पूर्व सीएमएचओ के.सी. उरांव से लेकर गर्गी यदु पाल के कार्यकाल तक गड़बड़ी बिना ब्रेक के चलती रही। मामला तब और गहरा गया जब उसी दागी लिपिक विजेंद्र को सीएमएचओ ने सरकारी अकाउंटेंट ट्रेनिंग में भेज दिया।
क्या ये महज़ संयोग था या एक संगठित साज़िश? सूत्र कहते हैं- कंप्रोमाइज का करार टूटा, तभी तो अब हर काले कारनामे की परत उखड़ रही है।

एक दिन में आधा करोड़ की खरीदी, लोकतंत्र के नाम पर मज़ाक !
2024 में जब राज्य में नई सरकार आई और जिले में नई सीएमएचओ बैठी, उसी वक्त एनआरएचएम मद से जिले के अस्पतालों के लिए कुर्सियां, वाटर कूलर, एसी, मेडिकल उपकरण जैसी सामग्रियों की खरीदी के नाम पर आधा करोड़ से अधिक का बजट एक दिन में उड़ा दिया गया।
15 मार्च को राशि आबंटित, 15 मार्च को ही खरीदी पूरी! 16 मार्च से आचार संहिता लागू थी… हड़बड़ी किस बात की थी? यह सवाल अब ज़मीन पर गूंज रहा है। “क्या ये लोकतांत्रिक व्यवस्था है या लूट तंत्र?”
राजिम कुंभ के नाम पर डाका !
सिर्फ़ ज़रूरी खरीदी ही नहीं, राजिम कुंभ जैसे धार्मिक आयोजनों के नाम पर भी लाखों का गोलमाल हुआ। कागज़ों में सामग्री खरीदी गई, सप्लाई की गई—but असल में अस्पतालों तक क्या पहुँचा, ये आज भी ‘रहस्य’ बना हुआ है।

रजिस्टर में एंट्री है, ज़मीनी हकीकत नहीं !
“मलेरिया से लोग मरते रहे, विभाग मच्छरदानी में कमाई करता रहा” मैनपुर ब्लॉक में जब मलेरिया कहर बनकर टूटा, तब 70 लाख की मच्छरदानियाँ खरीदी गईं। लेकिन खरीदी इतनी महंगी थी कि बाजार भाव से डेढ़ गुना ज्यादा रेट पर सामान लाया गया।
“जो मच्छरदानी कागज़ पर आई, वो गांव वालों तक पहुँची ही नहीं!” एनएचएम मद से सिर्फ मच्छरदानी नहीं, 2 करोड़ रुपए से ज़्यादा की खरीदी हुई और अब हर सामान पर सवालिया निशान है।
अब बड़ा सवाल ये है…
क्या लिपिक पर कार्रवाई कर सिस्टम ने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली?
क्या सीएमएचओ ऑफिस के अन्य अफसर बेदाग़ हैं?
क्या जांच सिर्फ एक निलंबन पर आकर खत्म हो जाएगी?
गरियाबंद की जनता पूछ रही है— अगर यही स्वास्थ्य व्यवस्था है, तो बीमारी से नहीं, सिस्टम से मरेंगे हम। अब वक्त है हर कागज, हर खरीद, हर योजना को खंगालने का… नहीं तो लूट का अगला अध्याय फिर से किसी नए पन्ने पर लिखा जाएगा।

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