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टेंटवाले के सामने बौना पड़ा सिस्टम ? गरियाबंद में 3 साल से स्कूल पर कब्जा, पेड़ के नीचे बच्चों की क्लास, टीचर्स की चिट्ठियां BEO-DEO के कूड़ेदान में पड़ीं

गिरीश जगत, गरियाबंद। छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के नवागांव में एक प्राथमिक शाला है — नाम भले ‘सरकारी’ हो, हक़ अब ‘निजी’ हो गया है। भवन पर टेंट हाउस संचालक नरेश नागेश का कब्ज़ा है। स्कूल स्टाफ ने ग्राम पंचायत से लेकर ज़िला शिक्षा अधिकारी तक हाथ-पैर जोड़े, चिट्ठियों की फाइलें भर दीं, लेकिन टेंट वाले ने जगह खाली नहीं की। सरकारी महकमा ‘घुटने टेके’ बैठे है। स्कूल की जमीन से ज्यादा मजबूत तो नरेश नागेश का ‘जुगाड़’ है। दबंगई के आगे सरकारी सिस्टम भी बौना पड़ गया है।

गरियाबंद जिले के नवागांव की प्राथमिक शाला अब स्कूल नहीं, बल्कि सरकारी उदासीनता की नजीर बन चुकी है। यहां शिक्षा की इमारत पर ताला नहीं, बल्कि एक टेंट हाउस संचालक का कब्जा है। नरेश नागेश नाम का यह व्यक्ति स्कूल भवन को पिछले एक साल से गोदाम की तरह इस्तेमाल कर रहा है।

हैरानी की बात ये नहीं कि कब्जा किया गया, असली शर्म की बात ये है कि पूरा शिक्षा विभाग, ग्राम पंचायत और जिला प्रशासन मिलकर भी इस कब्जे को हटवा नहीं पाए। ₹1.49 लाख की मरम्मत राशि पिछले साल मंजूर हो चुकी है, पर आज तक ईंट तक नहीं लगी। वजह साफ है — स्कूल भवन अब शिक्षा का केंद्र नहीं, टेंट हाउस का गोदाम बन गया है।

प्रधान पाठक जयंती बघेल ने बार-बार सरपंच से लेकर जिला शिक्षा अधिकारी तक गुहार लगाई। हर बार एक नई चिट्ठी, हर बार नया वादा — पर टेंट संचालक नरेश नागेश अपनी जगह अड़ा रहा और सिस्टम घुटनों पर। बार-बार भेजी गई मरम्मत रिपोर्ट में यही कारण दर्ज किया जाता रहा: “भवन पर कब्जा है।”

जनप्रतिनिधियों तक, सभी ने आंखें मूंद लीं

मगर इन रिपोर्टों को शायद फाइलों की कब्रगाह में दफन कर दिया गया, क्योंकि ज़मीनी कार्रवाई कहीं नहीं हुई। सरपंच से लेकर स्थानीय जनप्रतिनिधियों तक, सभी ने आंखें मूंद लीं। कहा जा रहा है कि जब हालात बेहद खराब हो जाएंगे, तब शायद नए भवन की मंजूरी मिल जाए — यही सोचकर कब्जा हटाने में कोई हाथ नहीं बंटा रहा।

बरामदे में बरगद के नीचे लगती है क्लास

स्कूल की हालत बद से बदतर हो चुकी है। कुल 34 बच्चों के लिए सिर्फ एक अतिरिक्त कमरा है — वहीं चार कक्षाओं की पढ़ाई और दफ्तर चलता है। कक्षा 5 की क्लास स्कूल के बरामदे में लगे एक बरगद के नीचे लगती है। धूप हो, बारिश हो, आंधी आए — बच्चों को उसी एक कमरे में ठूंस दिया जाता है। सरकार एक तरफ “डिजिटल इंडिया” और “बेटी पढ़ाओ” जैसे अभियान चलाती है, और दूसरी ओर गांवों में ऐसे स्कूल हैं जहां न छत है, न सुविधा, और न ही प्रशासन की परवाह।

कब्जा हटवाने की कोशिशें नाकाम रहीं

रिटायर्ड प्रधान पाठक अर्जुन ठाकुर का कहना है कि यह प्रशासनिक संवेदनहीनता का जिंदा उदाहरण है। शिक्षकों को संस्थान के लिए बोलने का अधिकार तक नहीं दिया जाता। यही वजह है कि एक साल से कब्जा हटवाने की कोशिशें नाकाम रहीं। शिक्षा विभाग का रवैया बताता है कि जब तक कोई बड़ा हादसा न हो जाए, तब तक सरकारी मशीनरी नहीं जागती। ऐसे मामलों में छात्रहित को प्राथमिकता देते हुए त्वरित और सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए।

क्या यह सिर्फ खानापूर्ति है ?

ब्लॉक शिक्षा अधिकारी योगेश पटेल कहते हैं कि सरपंच से संपर्क किया गया है। टेंट संचालक को तीन दिन में भवन खाली करने को कहा गया है। यदि ऐसा नहीं होता है तो पुलिस की मदद ली जाएगी। लेकिन सवाल ये है — जब कब्जा पूरे एक साल से है, तब यह ‘तीन दिन की डेडलाइन’ किसे बहलाने के लिए है? क्या यह सिर्फ खानापूर्ति है, या फिर सच्चाई को लटकाने का नया तरीका?

पूरा सरकारी तंत्र मूकदर्शक बना बैठा ?

असलियत यही है कि एक टेंट हाउस संचालक ने स्कूल पर कब्जा कर लिया है और पूरा सरकारी तंत्र मूकदर्शक बना बैठा है। बच्चों की पढ़ाई अब पेड़ के नीचे हो रही है, और मरम्मत की रकम लेप्स होने के कगार पर है। अगर आज एक व्यापारी के आगे प्रशासन झुकता है, तो कल क्या किसी बिल्डर के आगे स्कूल बेच दिए जाएंगे?

स्कूल पर कब्ज़ा, लेकिन पूरा तंत्र चुप

इस रिपोर्ट का कोई सुखद अंत नहीं है। एक टेंट वाले ने स्कूल पर कब्ज़ा किया है, और पूरा तंत्र चुप है। जिन बच्चों की कक्षाएं पेड़ के नीचे चल रही हैं, उनका कसूर बस इतना है कि वे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। सवाल ये है — अगर आज एक टेंट संचालक के सामने सरकार हार जाती है, तो कल किसी मॉल या बिल्डर के सामने किस स्कूल की बारी होगी?

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