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गरियाबंद में इलाज या आदिवासी का कत्ल ? दरवाज़ा बंदकर लगाया चीरा, खून से सना मरीज, 30 हजार में हुई थी डील, पढ़िए 50 लाख और FIR की कहानी

गिरीश जगत की रिपोर्ट। गरियाबंद। छत्तीसगढ़

गरियाबंद में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और प्रशासन की लापरवाही का सबसे घिनौना चेहरा गरियाबंद में सामने आया है। इलाज के नाम पर खुलेआम खेल रही झोलाछाप डॉक्टरों की मौत की दुकान ने एक आदिवासी परिवार से उसका सहारा छीन लिया। पेंड्रा गांव का 40 वर्षीय पुरुषोत्तम ध्रुव, जो सिर्फ़ बवासीर की समस्या का इलाज चाहता था, झोलाछाप डॉक्टरों की बेरहम ‘सर्जरी’ का शिकार बन गया।

इलाज नहीं, मौत का सौदा

20 अगस्त को ओडिशा सीमा से दो झोलाछाप—बबलू टांडी और संजू राजपूत—पुरुषोत्तम के घर पहुंचे। सौदा हुआ, रकम तय हुई—30 हज़ार रुपये। इलाज के नाम पर दरवाज़ा बंद हुआ और शुरू हुआ अंधाधुंध ‘ऑपरेशन’। तीन दिन तक झूठे इलाज का नाटक चलता रहा। परिजनों को गुप्त रोग का हवाला देकर कमरे से दूर रखा गया। लेकिन तीसरे दिन, जब पुरुषोत्तम खून से लथपथ तड़प रहा था, तब दोनों ‘डॉक्टर’ उसे अधमरा छोड़ 10 हज़ार रुपये तक लिए बिना वहां से भाग निकले।

खून से लथपथ शव और टूटा परिवार

मजबूरी में परिजनों ने दरवाज़ा तोड़ा तो सामने दिल दहला देने वाला मंजर था। पुरुषोत्तम दर्द से कराह रहा था, शरीर खून से भीगा हुआ था। परिजन उसे तुरंत गरियाबंद अस्पताल ले गए, लेकिन वहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में साफ़ हुआ कि झोलाछापों ने पाइल्स के इलाज के नाम पर गलत चीरा लगाया, जिससे अत्यधिक रक्तस्राव हुआ और उसकी जान चली गई।

समाज में आक्रोश

इस घटना से आदिवासी समाज उबल पड़ा है। समाज का प्रतिनिधिमंडल पीड़ित परिवार से मिलने पहुंचा और इस मौत को ‘इलाज के नाम पर हत्या’ करार दिया। अब समाज प्रशासन से दो टूक मांग कर रहा है—

  • पीड़ित परिवार को 50 लाख का मुआवज़ा दिया जाए।
  • दोषियों पर सख्त कार्रवाई कर उन्हें जेल भेजा जाए।

पुलिस की कार्रवाई

मामले की गंभीरता और पीएम रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने दोनों झोलाछापों पर FIR दर्ज कर ली है। बीएनएस की धारा 105 और 3(5) के तहत मामला पंजीबद्ध किया गया है। फिलहाल आरोपी फरार हैं और पुलिस उनकी तलाश में जुटी है।

सवालों के घेरे में प्रशासन

गरियाबंद जैसे ज़िलों में झोलाछाप डॉक्टर खुलेआम ‘इलाज’ के नाम पर लोगों की जान से खिलवाड़ कर रहे हैं। सवाल उठता है—क्या स्वास्थ्य विभाग को इनकी भनक नहीं लगती? अगर लगती है, तो कार्रवाई क्यों नहीं होती? आखिर कब तक आदिवासी और ग़रीब परिवार ऐसे नकली डॉक्टरों की भेंट चढ़ते रहेंगे?

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