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गरियाबंद में क्यों 2 फाड़ हो गई BJP ? झलक गया आदिवासी नेताओं का गुस्सा, खाली रह गईं सियासी कुर्सियां, जानिए तिरंगा यात्रा से पहले साइलेंट अटैक की कहानी ?

गिरीश जगत की रिपोर्ट। गरियाबंद। छत्तीसगढ़

“मौन भी कभी शोर मचा देता है”, गरियाबंद ज़िला भाजपा कार्यालय में मंगलवार को यही हुआ—मंच सजा था, झंडा लहरा रहा था, कार्यशाला का आयोजन भी भव्य था… पर कई कुर्सियां खाली थीं। और इन्हीं खाली कुर्सियों ने संगठन में उपेक्षित नेताओं की नाराजगी का ऐलान कर दिया—बिना एक शब्द बोले।

‘मोर तिरंगा मोर अभियान’ की कार्यशाला में बिंद्रानवागढ़ के प्रमुख आदिवासी चेहरे और मंडल अध्यक्षों की अनुपस्थिति कुछ यूं चुभी कि अब चर्चा सिर्फ तिरंगे की नहीं, संगठन के भीतर पलते आक्रोश की हो रही है।
देवभोग, कांदाडोंगर, गोहरापदर, मैनपुर, मलेवांचल—इन मंडलों के नुमाइंदे बैठक में नहीं पहुंचे। ये वही इलाके हैं जिन्हें हालिया भाजपा जिला कार्यकारिणी में शायद “जानबूझकर” नजरअंदाज किया गया।


चुप्पी में छुपा गुस्सा, गांधीगिरी में सजा सियासी तमाचा

बिंद्रानवागढ़ से जुड़े कई आदिवासी नेताओं की नाराजगी अब जगजाहिर हो चुकी है।
पूर्व विधायक गोवर्धन मांझी, डमरूधर पुजारी, हलमन ध्रुवा, भागीरथी मांझी जैसे दिग्गज नेता कार्यशाला से नदारद रहे। वे कुछ बोले नहीं, लेकिन अनुपस्थिति ही ‘राजनीतिक हस्ताक्षर’ बन गई

बीजेपी में वर्षों से अनुशासन की जो छवि रही है, वहां इतने बड़े नेताओं का यूं एक साथ ‘दूरी बना लेना’ कोई साधारण बात नहीं मानी जा रही। इसे न केवल कार्यशाला का ‘बहिष्कार’ बल्कि पार्टी नेतृत्व को मौन विद्रोह का स्पष्ट संदेश माना जा रहा है।


कुर्सियां भरी रहीं, पर मन के सवाल खाली थे

जहां एक ओर राजिम विधायक और पार्टी की नई ताकत लक्ष्मी वर्मा जैसे चेहरे बैठक में मौजूद थे, वहीं दूसरी ओर बिंद्रानवागढ़ से जुड़े नेताओं की चुप्पी ने कई चेहरों को असहज कर दिया। कार्यशाला के बाद खुद पार्टी के जिम्मेदारों को यह कहने पर मजबूर होना पड़ा—“जो नहीं आए उनसे कारण पूछा जाएगा…”

लेकिन संगठन से जुड़े हर शख़्स को अंदाज़ा है कि अनुपस्थिति का कारण पूछने से ज़्यादा ज़रूरी है उस अनदेखी को पहचानना, जो आज के हालात की वजह बनी।


संगठन से सत्ता तक: किसकी सुनी गई, किसे भुला दिया गया?

भाजपा के भीतर हाल ही में हुए निगम-मंडल और जिला कार्यकारिणी में नियुक्तियों ने ही इस असंतोष की आग को हवा दी है। बिंद्रानवागढ़ क्षेत्र से जुड़े मंडलों को पूरी तरह हाशिए पर डाल दिया गया, जबकि जिन नेताओं ने वर्षों संगठन की सेवा की, उन्हें एक तरह से ‘अनसुना’ कर दिया गया।

“न खंजर उठे, न तलवार चली – पर ये सत्ता और संगठन के भीतर पल रही खामोश कलह की खुली किताब है,” एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने दबी जुबान में कहा।


क्या यह सिर्फ नाराज़गी है, या आने वाले सियासी तूफान की आहट?

बिंद्रानवागढ़ क्षेत्र भाजपा का गढ़ रहा है—आदिवासी समाज की सीधी पकड़ वाला इलाका। वहां से इस तरह का सामूहिक मौन और गांधीगिरी से किया गया विरोध सिर्फ एक कार्यशाला की अनुपस्थिति नहीं, बल्कि भविष्य की चुनावी रणनीति पर भी असर डाल सकता है

आने वाले समय में यदि यह असंतोष फूट पड़ा, तो इसका असर केवल गरियाबंद जिले तक सीमित नहीं रहेगा—बल्कि प्रदेश में भाजपा के जनाधार पर भी गहरा असर डालेगा।


संगठन के भीतर की चुप्पी, बाहर की गूंज बन चुकी है

यह घटना बताती है कि राजनीति में हर फैसला केवल पद या कुर्सी से तय नहीं होता—सम्मान, भागीदारी और क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व की उपेक्षा भी आंदोलन को जन्म देती है, चाहे वो मंच से हो या मौन के माध्यम से।

गरियाबंद की इस कार्यशाला ने भले ही “मोर तिरंगा” का संदेश फैलाने का उद्देश्य रखा हो, पर बिंद्रानवागढ़ से आए ‘न आहट, न आवाज़’ ने एक गहरा संदेश ज़रूर दे दिया है—भाजपा संगठन के भीतर सब कुछ ठीक नहीं है।

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