
गिरीश जगत की रिपोर्ट | गरियाबंद | छत्तीसगढ़
गरियाबंद जिले का एक गांव—पंडरीपानी, जहां देश की आज़ादी के 77 साल बाद भी कुछ बच्चे आज भी पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ाई करने को मजबूर हैं। कमार और भुजिया जनजाति के इन मासूम बच्चों का कसूर सिर्फ इतना है कि वो एक ऐसे गांव में पैदा हुए, जिसे न सरकार ने देखा, न सिस्टम ने।
यहां 20 साल पुराना जर्जर भवन खड़ा है, जिसे स्कूल कहा जाता है—but अब उसमें बच्चों को भेजना खुद मौत के मुंह में धकेलने जैसा है। डर के मारे गांववालों ने खुद ही फैसला किया—“भवन में पढ़ाई नहीं होगी, मास्टर जी पेड़ के नीचे ही पढ़ाएं।”

स्कूल नहीं, खंडहर है!
बेगरपाला पंचायत का आश्रित गांव पंडरीपानी, जहां 32 परिवार रहते हैं और 22 से ज्यादा बच्चे स्कूल जाने की उम्र में हैं। लेकिन जर्जर भवन और सरकारी उपेक्षा ने उन्हें स्कूल से बाहर धकेल दिया है। आज हालात ये हैं कि सिर्फ 13 बच्चे ही स्कूल में नामांकित हैं। बाकी बच्चों के माता-पिता डरते हैं कि कहीं उनके बच्चे उस जर्जर भवन के नीचे दब न जाएं।

ग्राम प्रमुख पंचराम और धनेश्वर नेताम साफ कहते हैं—“हम लोग प्रशासन से मांग करते-करते थक गए। अब तो खुद ही मास्टर से कह दिया कि पेड़ के नीचे पढ़ा लो। स्कूल भवन किसी दिन जान ले लेगा।”
विशेष जनजाति, लेकिन योजना से बाहर!
कमार और भुजिया, दोनों ही जनजातियां छत्तीसगढ़ की विशेष पिछड़ी जनजातियों में शामिल हैं। लेकिन अफसोस की बात ये है कि पंडरीपानी गांव को अब तक किसी भी विशेष योजना में शामिल नहीं किया गया।
ग्राम सरपंच मनराखन मरकाम बताते हैं, “ना ‘मुख्यमंत्री जतन योजना’ से भवन मिला, ना किसी योजना से मरम्मत के लिए फंड। धवलपुर शिविर से लेकर कलेक्टोरेट तक आवेदन दिए, लेकिन सुनवाई नहीं हुई।”

जनमन योजना, जो जनजातीय गांवों के लिए चलाई जाती है, उसमें भी पंडरीपानी को वंचित रखा गया।
पीएम आवास योजना में घरों की मंजूरी तो दूर, पिछली सरकार से मिले राज्य मद के अधूरे आवास भी जस के तस खड़े हैं—बिना छत, बिना जीवन।

कब तक करेंगे सिर्फ आवेदन?
ग्रामीणों की ओर से कई बार आवेदन, शिकायतें और मांग पत्र भेजे गए, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात!
सवाल उठता है—क्या एक गांव तब तक अनदेखा रहेगा, जब तक कोई हादसा न हो जाए? क्या बच्चों की पढ़ाई की कीमत किसी छत के गिरने के बाद ही समझी जाएगी?
अब सड़कों पर उतरेगा गांव
अब जिला पंचायत सदस्य संजय नेताम ने कमान संभाली है। वो खुद पंडरीपानी पहुंचे और जर्जर भवन के सामने ग्रामीणों के साथ बैठक कर रणनीति बनाई।
संजय नेताम ने साफ कहा—“सरकार की जनमन योजना कहती है कि हर विशेष जनजातीय बस्ती को मूलभूत सुविधाएं मिलनी चाहिए। फिर पंडरीपानी को क्यों छोड़ा गया?”
उन्होंने कहा कि पहले मांगें जिला प्रशासन के सामने रखी जाएंगी, अगर वहां से जवाब नहीं मिला, तो सड़क पर उतर कर लड़ाई लड़ी जाएगी।

सिस्टम से तीन सवाल ?
- आखिर क्यों आज़ादी के 77 साल बाद भी पंडरीपानी में स्कूल भवन नहीं है?
- क्यों विशेष पिछड़ी जनजाति होते हुए भी ये गांव सभी योजनाओं से बाहर है?
- क्या बच्चों की जान जाने के बाद ही सरकार हरकत में आएगी?